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शष्ठम् अध्याय
अथातो विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।। अर्थ : प्रमेह चिकित्सा व्याख्यान के बाद विद्रधि तथा वृद्धि चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ऐसा आत्रेयादि महर्षियों ने कहा था।
विद्रधि की सामान्य चिकित्सा
विद्रधिरोगचिकित्सितम्। विद्रधिं सर्वमेवामं शोफवत् समुपाचरेत्। - . प्रततं च हरेद्रक्तं पक्वे तु व्रणवत्क्रिया।। अर्थ : सभी प्रकार की आम विद्रधियों की शोथ के समान चिकित्सा करें और लगातार रक्तमोक्षण (तुम्बी, जोंक तथा शिरा वेध द्वारा) कराये। पक जाने पर। व्रण के समान (भेदन, शोधन तथा रोपण) चिकित्सा करें।
वात विद्रधि की विशेष चिकित्सापच्चमूलजलैधौतं वातिकं लवणोत्तरैः। मद्रादिवर्गयष्ट्याहव-तिलैरालेपयेद् व्रणम्।।
वैरेचनिकयुक्तेन त्रैवृतेन विशोध्य च। ..
- विदारीवर्गसिद्धेन त्रैवृतेनैव रोपयेत् ।। अर्थ : वातज विद्रधि में पंच्चमूल (वेल, गम्भारी, अरणी, सोनापाठा, पाढ़ल) समभाग इन सब के क्वाथ से प्रक्षालन करें और भद्रादि वर्ग (देवदादि वर्ग) की औषधों मुलेठी तथा तिल इन सब के कल्क में सेन्धानमक मिलाकर लेप लगाये। इसके बाद बेरेचिनिक वर्ग के द्रव्यों से विधिवत् सिद्ध त्रैवृत घृत से शोधन कर विदारी वर्ग के द्रव्यों से विधिवत् सिद्ध त्रैव्रत घृत से ही रोपण करें।
- पित्तज विद्रधि की विशिष्ट चिकित्सा
क्षालितै क्षीरितोयेन लिम्पेद्यष्टयमृतातिलैः। . । पैत्तं घृतेन सिद्धेन मज्जिष्ठोशीरपद्मेकैः।।
: पयस्याद्विनिशाश्रेष्ठा-यष्टीदुग्धश्च रोपयेत्। अर्थ : पैत्तिक विद्रधि में क्षीरि वृक्ष (न्यग्रोधादि क्षीरिवृक्ष) के क्वाथ से प्रक्षालन कर मुलेठी, गुडूची तथा तिल के कल्क का लेप लगावें। इसके बाद मजीठ, खस, पद्मकाठ, क्षीर विदारी, हल्दी, दारूहल्दी, त्रिफला (हरे, बहेड़ा, आँवला) , मुलेठी तथा दूध इन सब के साथ विधिवत् सिद्ध घृत से रोपण करें। अथवा न्यग्रोध, पीपर, पाकड़, गूलन, परासपाकड़ इन सब के पत्ते, छाल तथा फल
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