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________________ | मजबूत तथा लाक्षारस से पुता हुआ भाण्ड में रखकर जव के ढेर में 15 दिन. तक रक्खें । इसके बाद निकालकर उसमें लोहे के सूक्ष्म पत्रों को खैर की लकड़ी के अंगार में तपाकर अनेक बार बुझावें और मुख बन्द कर तब तक रखें जब तक वह गल न जाय । यह अयस्कृति पीने से पूर्वोक्त लोध्रासव के गुणों से अधिक गुण वाली होती है। अर्थात् प्रमेह, अर्श, अस्थि रोगों को नष्ट करती है। . प्रमेह में पथ्यरूक्षमुद्वर्तनं गाढं व्यायामो निशि जागरः।। यच्चाऽन्यच्छ्लेष्ममेदोघ्नं बहिरन्तश्च यद्धितम् । अर्थ : प्रमेह रोग में अधिक रूप में रूक्ष उवटन (सूखे चूर्ण का मालिस), . व्यायाम, रात में जगना इनके अतिरिक्त जो.बाहरी तथा भीतरी कफ तथा मेदनाशक उपाय हैं वे हितकर हैं। प्रमेह आदि रोगों में शिलाजीत का प्रयोगसुभावितां सारजलैस्तुलां पीत्वा शिलोद्भवात्।। साराम्बुनैव भुज्जानः शालिं जागलजै रसैः। सर्वानभिभवेन्मेहान् सुबहूपद्रवानपि।। . गण्डमालाऽर्बुदग्रन्थि-स्थौल्यकुष्ठभगन्दरान्। कृमिश्लीपदशोफांश्च परं चैतद्रसायनम्।। अर्थ : विजयसार तथा खैर सार आदि सारकाष्ठों के क्वाथ से अच्छी तरह भावित पाँच किलो शिलाजीत विजयसार आदि के ही जल के साथ पानकर जड़हन ६ पान का भात खाता हुआ प्रमेह का रोगी अनेक उपद्रव वाले सभी प्रकार के प्रमेहों. को जीत लेता है। इनके अतिरिक्त यह रसायन गण्डमाला, अर्बुद, ग्रन्थिरोग, स्थूलता, कुष्ठरोग, भगन्दर, क्रिमिरोग तथा श्लीपद के शोथों को दूर करता है। ___साधनहीन प्रमेहों की चिकित्सा अधनश्छत्रपादत्ररहितो मुनिवर्तनः। योजनानां शतं यायात् खनेद्वासलिलाशयान् ।। ___ गोशकृन्मूत्रवृत्ति गौभिरेव सह व्रजेत्। अर्थ : असहाय तथा निर्धन प्रमेह का रोगी छाता तथा जूता रहित रहकर मुनि के सामान आहार-विहार करते हुए सौ योजन (400 कोस) तक चले और कुआँ तथा तालाब आदि जलाशय खोदें। अथवा गोबर खाकर तथा गोमूत्र पीकर रहे और गायों के साथ घूमे। अर्थात् गाय चराये। दुर्बल प्रमेह रोगी की चिकित्सा बृहयेदौषधाहारैरमेदोमूत्रलैः कृशम् ।। अर्थ : दुर्बल प्रमेह के रोगी को बृंहणकारक औषध तथा आहार के द्वारा बृंहण 81
SR No.009378
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 03 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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