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हो तो स्नेहयुक्त दीपन औषध का प्रयोग करे। अधिक पित्त वाले व्यक्ति के लिए दीपन तथा मधुर द्रव्यों से मिला हुआ तिक्त रस प्रधान द्रव्यों का सेवन करे।
. वात प्रधान ग्रहणी की चिकित्सा-. . . स्नेहमेव परं विद्यादुर्बलानलदीपनम्।।
- नालं स्नेहसमिद्धस्य शमायान्नं सुगुर्वपि।। अर्थ : वातं प्रधान ग्रहणी रोग में अम्ल तथा लवण रसप्रधान द्रव्यों से युक्त स्नेह का प्रयोग प्रशस्त है। दुर्बल अग्नि को प्रदीप्त करने वाला स्नेह को ही उत्तम समझें। स्नेह से प्रदीप्त अग्नि को गुरू अन्न भी शान्त करने में समर्थ नहीं होता है। विश्लेशण : मन्दाग्नि वाले मनुष्य का अग्नि स्नेह से बहुत जल्दी और अच्छी तरह प्रदीप्त होता है। यदि वह कटु, अम्ल तथा तिक्त द्रव्यों के साथ प्रयोग किया जाय। केवल घृत का सेवन अग्नि को मन्द करता है। अतः मन्दाग्नि व्यक्ति को केवल घृत का प्रयोग नहीं करना चाहिए। . .
कफक्षीण, द्रव पुरीषग्रहणी रोग में घृतयोऽल्पाग्नित्वात्कफे क्षीणे वर्चः पक्वमपि भलथम् ।। मुच्चेद् यद् द्वयौषधयुतं स पिबेदल्पशो घृतम्। . तेन स्वमार्गमानीतः स्वकर्मणि नियोजितः।।
समानो दीपयत्यग्निमग्नेः सन्धुक्षको हि सः। अर्थ : कफ के क्षीण होने पर मन्दाग्नि होने से जो व्यक्ति परिपक्व तथा पतला पुरीष त्याग करता है वह सेन्धानमक तथा सोंठ का चूर्ण मिलाकर घृत पान करे। उससे अपने मार्ग में लाया गया तथा अपने कर्म में नियुक्त समान वायु जाठराग्नि को प्रदीप्त करती है क्योंकि वह जाठराग्नि का संधुक्षक होती है। अर्थात् जाठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए धौकनी का काम करती है।
कठिन पुरीष ग्रहणी की चिकित्सापुरीषं यश्च कृच्छणे कठिनत्वाद्विमुज्जति।।
‘स घृतं लवणैर्युक्तं नरोऽन्नावग्रहं पिबेत्।। अर्थ : यो ग्रहणी का रोगी कठोर (कड़ा) होने के कारण कठिनाई से पुरीष त्याग करता है वह व्यक्ति सेन्धानमक मिला हुआ घृत भोजन के बाद पीवे।
. अवस्थानुसारग्रहणी रोग की चिकित्सारौक्ष्यान्मन्देऽनले सर्पिस्तैलं वा दीपनैः पिवेत्।। क्षारचूर्णासवारिश्टान् मन्दे स्नेहातिपानतः।
दावर्तीत्प्रयोक्तव्या नियहस्नेहबस्तयः।।। दोषाऽतिवृद्धयामन्देऽग्नौ संशुद्धोऽनविधि चरेत् ।
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