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________________ तृतीय अध्याय . .. . अथाऽतो ग्रहणीदोषचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । . इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।। अर्थ : अतिसारचिकित्सा व्याख्यान के बाद ग्रहणी दोष की चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ऐसा आत्रेयादि महर्षियों ने कहा था। . ग्रहणी में अजीर्णोपचार ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत्। अतीसारोक्तविधिना तस्यामं च विपाचयेत्।। .. अर्थः ग्रहणी कोआश्रित कर स्थित दोषोंकी अजीर्ण के समान चिकित्सा (लंघन-स्वेदनादि) . करे और अतिसार रोग में विहित आमपाचन विधि का प्रयोग करे। ग्रहणी विकार में यवागू आदि का प्रयोगअन्नकाले यवाग्वादि पच्चकोलादिभिर्युतम्। .. वितरेत्पटुलध्वन्नं पुनर्योगांश्च दीपनान्।। . अर्थ : ग्रहणी के रोगी को भोजन के समय पच्चकोल आदि के पकाये जल के साथ बनाये यवागू-पेया आदि का प्रयोग करें। पुनः नमक तथा सुपच अन्न · खाने को दें और अग्निदीपक (खाडव आदि) योगों का प्रयोग करें। आम दोष ग्रहणी में पेया आदि का प्रयोग-- दद्यात्सातिविषां पेयामामे साम्लां सनागराम् । पानेऽतिसारविहितं वारि तक्रं सुरादि च।। अर्थ : आम दोष वाली ग्रहणी में अतीस तथा सोंठ से युक्त और अनार दाना के रस से थोड़ा अम्ल की गयी पेया का प्रयोग करें और पीने के लिए. अतिसार चिकित्सा प्रकरण में कहे गये यूष, तक्र (मट्टा) तथा सुरा आदि दें। ग्रहणी रोग में मट्ठा के प्रयोग का हेतुग्रहणीदोषिणां तक्र दीपनग्राहिलाधवात् । पथ्यं मधुरपाकित्वान्न च पित्तप्रदूषणम् ।। कषायोष्णविकाशित्वाद्रूक्षत्वाच्च कफ हितम् । वाते स्वाद्वम्लसान्द्रत्वात्सद्यस्कमविदाहि तत् ।। अर्थ : ग्रहणी के रोगियों के लिए दीपन, ग्राही तथा सुपच होने के कारण मट्ठा पथ्य हैं। इसका परिपाक मधुर होने के कारण यह पित्त को प्रकुपित नहीं करता है। कषाय, उष्ण, विकाशी तथा रूक्ष होने से कफज ग्रहणी में हितकर .. 52
SR No.009378
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 03 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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