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________________ अर्थ : कफ तथा वात के दुर्बल होने पर पित्त की प्रबलता से अधिक रक्तस्राव देखकर उसकी शान्ति के लिए पूर्णरूप से शीतोपचार करे। यदि शोतोपचार से रक्तस्राव शान्त न हो तो स्निग्ध और थोड़ा उष्ण अवपीड़क से (गानुत्पारदकीय अ. ह. अ. 4-6 ) थोड़ा उष्ण घृत से तर्पण करे। इसके बाद थोड़ा गरम तैल, दूध या घृत से अर्श को अच्छी तरह सीचें । रक्तार्श में पिच्छावस्ति यवासकुशकाशानां मूलं पुष्पं च शाल्मलेः । । न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थ- शुगश्च द्विपलोन्मिताः । त्रिप्रस्थे सलिलस्यैतत्क्षीरप्रसथे च साधयेत् । । क्षीरशेषे कषाये च तसिमन्पूते विमिश्रयेत् । कल्कीकृतं मोचरसं समग्र चन्दनोत्पलम् ।। - प्रियङ्गु कोटज बीजं कमलस्य च केसरम् । पिच्छावस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः ।। प्रवाहिकागुदभ्रंशरक्तस्रावज्वरापहः । अर्थ : यवास, कुश तथा कास इन सबकी जड़ख सेमर का फूल, वट, गूलर 'तथा पीपर का टूसा, दो-दो पल (प्रत्येक 100 ग्राम) इन सबको जल तीन प्रस्थ, (3 किलो) तथा दूध एक प्रस्थ ( 1 किलो) में मिलाकर पकावे केवल - दूध शेष रह जाने पर छान ले तथा कषाय में मोचरस, मजीठ, चन्दन, नीलकमल, प्रियंगु, इन्द्रयव, तथा कमल का केसर समभाग इन सबका कल्क 'बनाकर मिला दे। इसके बाद इसमें घी, मधु तथा शक्कर मिला दे । यह पिच्छावस्ति है। इसका प्रयोग करने से यह प्रवाहिका; गुदभ्रंश, रक्तस्राव तथा ज्वर को नष्ट करता है। रक्तार्श में अनुवासनवस्ति यष्टयाहवपुण्डरीकेण तथा मोचरसादिभिः । क्षीरद्विगुणितः पक्वो देयः स्नेहोऽनुवासनम् ।। अर्थ : मुलेठी, पुण्डरीक (लाल कमल) तथा पूर्वोक्त मोचरस आदि (मोचरस - मजीठ, चन्दन, नील कमल, प्रियंगु, इन्द्रयव तथा कमल - केशर) सम भाग इन सबों के कल्क के साथ तैल से दुगुना दूध मिलाकर स्नेह तैल सिद्ध करें और रक्तार्श में इसका अनुवासन दें । त्रिदोषजार्श में मधुकादि घृतमधुकोत्पलरोधाम्बु समग्रं बिल्वचन्दनम् || चविकातिविषा मुस्तं पाठा क्षारो यवाग्रजः । दार्वीत्वङ्नागरं मांसी चित्रको देवदारू च ।। 24
SR No.009378
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 03 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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