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________________ अष्टम् अध्याय अथात उदरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।। अर्थ : गुल्म चिकित्सा व्याख्यान करने के बाद उदररोग चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ऐसा आत्रेयादि महर्षियों ने कहा था । उदर रोग में चिकित्सा सूत्रदोषातिमात्रोपचयात्स्रोतोमार्गनिरोधनात् । सम्भवत्युदरं तस्मान्नित्यमेनं विरेचयेत् । पाययेत्तैलमैरण्डं समूत्रं सपयोऽपि वा । मासं द्वौ वाऽथवा गव्यं मूत्रं माहिषमेव वा । पिबेद् गोक्षीरभुक् स्याद्वा करभीक्षीरवर्तनः । दाहानाहातितृण्मूर्च्छापरीतस्तु विशेषतः । । अर्थ : दूषित मलों के अधिक मात्रा में एकत्र हो जाने से तथा स्रोतसों के मार्ग अवरूद्ध हो जाने से उदर रोग होता है, अतः दोषों को निकालने के लिए नित्य विरेचन कराना चाहिए । एक माह या दो माह एरण्ड के तैल में गोमूत्र तथा दूध मिलाकर पिलाये । अथवा गाय का मूत्र या भैंस का मूत्र पान करे। अथवा गाय के दूध या ऊँटनी का दूध पीकर रहे। विशेषकर दाह, आनाह अधिक प्यास तथा मूर्च्छा, पीड़ित व्यक्ति पूर्वोक्त विरेचन तथा आहार का सेवन करे । उदर रोग में स्नेहन विधि रूक्षाणां बहुवातानां दोषसंशुद्धिकागिक्षणाम् । स्नहेनीयानि सर्पीषि जठरघ्नानि योजयेत् ।। शट्पलं दशमूलाम्बु- मस्तुद्वयाढकसाधितम् । अर्थ : रूक्ष प्रकृति तथा अति प्रकुपित वायु वाले एवं दोषों की शुद्धि कराने की इच्छा वाले स्नेहन करने के योग्य रोगी को उदर रोग नाशक घृत का प्रयोग करे। उदर रोग में दशमूल का क्वाथ दो आढक (8 किलो) तथा दही का तोड़ (4 किलो) एक आढक में पुनः सिद्ध षट्पल घृत का प्रयोग करें। उदररोग में नागरादि घृत तैल नागरं त्रिपलं प्रसथं घहृततैलात्तथाऽऽढकम् ।। मस्तुनः साधयित्वैतत्पिबेत्सर्वोदरापहम् । 112
SR No.009378
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 03 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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