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उदीर्य चाऽग्नि स्रोतांसि मृदूकृत्य विशोधयेत् । लीनपित्तानिलस्वेदशकृन्मूत्रानुलोमनम् ||12|| निद्राजाड्यारूचिहरं प्राणानामबलम्बनम् । विपरीतभत । शींत दोषसङ्घातवर्धनम् । । 13 । । अर्थ : वात-कफ ज्वर में प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा उष्ण जल पिलाना चाहिए। यह उष्ण जल पान कफ को ढीला कर शीघ्र ही प्यास को दूर करता है और अग्नि को तीव्र कर तथा स्रोतेसों को मृदुकर दोषों का सशोधन करता है । इसके अतिरिक्त शरीर में छिपे हुए पित्त, वात, स्वर, मल तथा मूत्र का अनुलोमन करता है । उष्ण जल, निद्रा, शरीर की जड़ता तथा अरूचि को दूर करता है और प्राणों को धारण करता है। इसके विपरीत शीतल जलपान दोषों के समूह को बढ़ाता है।
विश्लेषण : ज्वर की अवस्था में कभी भी शीतल जल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कफ ज्वर में उक्त अष्टमांश, वात ज्वर में चतुर्थांष तथा पित्त ज्वर में अर्द्धा शेष जल पीने को देना चाहिए। यदि ज्वर की प्रथम अवस्था में केवल उष्ण जल का सेवन किया जाय तो बिना किसी औषधि के ज्वर समाप्त हो जाता है ।
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उष्ण जल का निषेध.....
उष्णमेव गुणत्वेऽपि युज्ज्यान्नैकान्तपित्तले । 'उद्रिक्तपित्ते दवथुदाहमोहातिसारिणि । । 14 11 विषमद्योत्थिते ग्रीष्मे क्षतक्षीणेऽसपित्तिनि ।
अर्थ : पूर्वोक्त प्रकार से उष्ण जल का उत्तम गुण होने पर भी केवल पित्त के प्रकोप में तथा पित्त की प्रधानता होने पर और अन्तर्दाह, दाह, विष तथा मद्यपान, ग्रीष्म ऋतु, उरक्षत से क्षीण तथा रक्त पित्त में उष्ण जल पान का निषेध है ।
विश्लेषण : उष्ण जलपान का रोग विशेष एवं अवस्था विशेष में निषेध किया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि गरम रहते हुए जल का पान उपरोक्त अवस्थाओं में नही करना चाहिए । किन्तु उष्ण जल जब शीतल हो जाय तब उसे पान कराने में कोई हानि नहीं है। क्योंकि उष्ण किया हुआ जल शीघ्र पचता है और शीतल जल का परिपाक देर से होता है। शीतल जल पान करने पर छः घण्टे में पचता है और गरम जल शीतल हो तो तीन घण्टे में पचता है। इसके अतिरिक्त गरम किया हुआ गुनगुना जल पीने से डेढ़ घण्टे में परिपक्व होता है ।
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