SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लङ्घनं स्वेदनं कालो यवागूस्तिक्तो रसः । । 21 ।। अर्थ : सभी प्रकार के ज्वरों में स्नेह पान विधि अध्याय में स्नेहपान के बाद रोगी को आचारों का सेवन करना बताया है उन सभी आचारों का पालन करना चाहिए। जैसे गरम जल पीना, अधिक हवा में न बैठना, दिन में न सोना, मल-मूत्रों का वेग न रोकना आदि । । 21 ।। ज्वर में पाचन कर्म • मलाना पाचनानि स्युर्यथावस्थं क्रमेण वा । अर्थ : ज्वर की आम, पच्यमान, पक्व - इन अवस्थाओं में लंघन स्वेदन काल (समय सात, दिन पर्यन्त) यावगू तथा तिक्त रस का प्रयोग दोषों को पाचन करने वाले होते हैं। विश्लेषण : ज्वर की आमावस्था में लंघन तथा स्वेदन दोषों का पाचन करते हैं, और सात दिन में सात धातुगत आमदोष का पांचन होता है। यदि इनमें पाचन हुआ तो पाचन द्रव्य से बनाया हुआ यवागू या तिक्तरस प्रधान द्रव्य का प्रयोग करना चाहिए। इनमें दोषों का अच्छी तरह पाचन हो जाता है। यह क्रम कुछ दिन ज्वर के बने रहने पर किया जाता है और अन्य एक दो दिनरहने वाले ज्वर में केवल लंघन किया जाता है । । 21 ।। • लंघन का निषेध शुद्धवात-क्षयाऽऽगन्तुं - जीर्ण - ज्वरिशु लंघनम् । 122 11 नेष्यते तेषु हि हितं शमनं यन्न कर्शनम् । तत्र सामज्वराकृत्या जानीयादविशोषितम् | 23 | | द्विविधोपक्रमज्ञानमवेक्षेत च लंघने । अर्थ : शुद्ध वातज, क्षयज, आगन्तुक जीर्ण ज्वर वाले रोगियों को लंघन नहीं कराना चाहिए और इनमें शमन कराना हितकर होता है किन्तु वह शमन शरीर का कृश करने वाला नहीं । उन ज्वरों में यदि साम ज्वर का लक्षण हो तो लंघन द्वारा दोषों शोषण नहीं हुआ है ऐसा समझना चाहिए । द्विविधाय क्रम अध्याय में सम्यक लंघन, अति लंघन तथा अलंघन के लक्षण बताये गये हैं और लंघन के दोष तथा गण बताये गये हैं। लंघन विधि को वहाँ देखना चाहिए। 22-23 ।। सम्यक् लंघन के बाद उपक्रमयुक्तं लङ्घितलिडैस्तु तं पेयाभिरूपाचरेत् । । यथास्वौषसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः । तस्याग्निर्दीप्यते ताभिः समिद्भिरिव पावकः ।। शडहं वा मृदुत्वं वा ज्वरो यावदवाप्नुयात् । 11
SR No.009377
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 02 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy