SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 954
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८०६ उत्तराभ्यन 12 छाया - निस्तु या (ते) यशस्कामिन्, नत्र जीवितकारणात् । प्रान्तमिच्छसि आपातु यस्ते मरण भवेत् ||४३॥ टीका- 'चिरत्यु' इत्यादि -- कामयते = वान्छति तन्त्री, कामी, यशसः = सयमस्य कीर्ते कामी य स्कामी, तत्सबुद्धौ हे यशस्कामिन् ! यद्वा-अकार उदार हे अयशस्कामिन् असयमापयशोऽर्थिन! त्यागन्नु निन्योऽसि यमित्यर्थः । 'ते' इति द्वितीयार्थे पष्ठी । यद्वा- 'ते' इति षष्ठयन्तमेव, तत्र "पौरुपम्" इत्यस्य शेप, विमित्यने और भा--'घिरत्यु' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( जसो कामी - यशस्कामिन) सयम अथवा कीर्ति की कामनोवाले हे रधनेमे ! ते (frerg - ते विक्रअस्तु) तुमसे धिकार हो । ( जो त - यस्त्वम् ) जो तुम (जीविय कारणा-जीवित कारणात) असंयमित जीवित के सुख के निमित्त (वन - वान्तम् ) भगवान् नेमिनाथ द्वारा परित्यक्त होने की वजह से वान्त जैसी मुझे (आवेउ - आपानुम् सेवित करने की (इच्छसि - इच्छसि ) चाहना कर रहे हो । इमकी अपेक्षा तो (ते - ते) तुम्हारा ( मरण सेय-मरण श्रय) मरना ही अच्छा है। "ते जसो कामी" यहाँ अकार का प्रश्लेष करने से "तेऽयशस्का मिन्" ऐसा पद बन जाता है। तब असयम एव अपयश की कामना करने वाले तेरे लिये धिक्कार हो ऐसा अर्थ हो जाता है । अथवा "ते" इसको द्वितीया विभक्ति के स्थान पर न मानकर षष्ठी विभक्ति के स्थानपर ही रक्खा जाय तब "ते पौरुपम् " ऐसा सबंध लगाना पशु--"घिरत्यु" इत्यादि । अन्वयार्थ --- जसो कामी यशस्कामिन् सयम અથવા કીર્તિની કામના वाणा हे रथनेभि 1 ते घिरत्यु - ते धिकअस्तु भने धि४४२ जोत-यम्त्त्रम् जीविय कारणा - जीवित कारणात् सयभित भुवनना सुष्मना निभित्ते वत - बान्तम् लगवान नेमिनाथ द्व ત્યાગવામા આવેલ હાવાથી ઉલટી જેવી મને आवेउ - आपातुम् सेवन ४२वानी तभी इच्छिसि - इच्छसि थाना भरी रह्या छी मा ते पवारता ते - ते भा३ मरण सेय-मरण श्रेय भरी उत्तम छ "तेजसो कामी" अडी मारने। अश्वेष दुरवाथी "तेऽयशस्कामिन्" भे પદ્મ બની જાય છે ત્યારે અસયમ અને અપયશની કામના કરવાવાળા એવા તને ધિકકાર હા એવા અથ થઇ જાય છે અથવા “તે આને બીજી વિભક્તિના સ્થાન उपर न मानना छठ्ठी विभतिना स्थान पर सभामा आवे तो "ते पौरुषम् "
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy