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________________ ७९३ - प्रियदर्शिनी टीका अ २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम् पतश्च मूत्रकारोऽपि वर्णयतिमूलम् अहे सा भमरंसनिभे, कुच्चफंणगपसाहिए। सयमेव लंचंड केसे', विडमता ववैस्सिया ॥३०॥ छाया-अथ सा भ्रमरमनिभान् . कृर्चफणसभिभान् । ___ स्वयमेव लुञ्चति केशान, धृतिम्ती व्यरसिता ॥३०॥ टीका - 'अह' इत्यादि। 'अय-धर्मदेशनाश्रवणानन्नर तिमती-धैर्ययुक्ता व्यरसिता-धर्माही करणे 5.यवसाययुक्ता सा राजीमती भ्रमरसन्निभान् कृष्णतयाऽऽकृञ्चिततया च भ्रमर तुल्यान्, कृर्वगामसाधितान्-र्चेन-1. गलाकानिर्मितेन 'वी' इति प्रसिदेन, फगकेन-तकन च प्रसाधितान्-स कृतान केशान भगफ्टनुज्ञया स्वयमेव लुश्चति अपनयति ॥३०॥ पार्मिक देशना सुनकर राजीमतीने मातमौ सखियों के साथ भगवान के समीप दीक्षा चारण की ॥ सूत्रकार अप इसोयात का वर्णन करते है-'अहसा' इत्यादि । अन्वयार्थ-(अर-अय) प्रभु नेमिनाथ भगवानकी धर्मदेशनासुनने के बाद (धिडमता-वृतिमति) धैर्ययुक्त तथा (ववस्पिया-व्यवसिता) धर्म अंगीकार करने के अध्यवसायवाली (मा-सा) उस राजीमतीने (भम रंसनिभे-भ्रमरमनिभान्) भ्रमर के समान पाले तथा (कुच्चफणकपसाहिए-कृर्चफणफसन्निभान) कुची पब फगक-कङ्कतक-से समारे हुए अपने (केसे-केशान्) केशों का (मयमे लुचइ-स्वयमेव लुञ्चति) अपने हाथों से ही लश्चन किया ॥३०॥ સમયે એમની ધર્મદેશના સાભળીને રાજીમતીએ સાતસો સખીઓની સાથે ભગવા નના સમક્ષ દક્ષા ધારણ કરી લીધી सूत्र हवे से वातनु पर्थन ४३ छ "अहसा" त्या ! । सन्याय-अह-अथ प्रभु नभिनाय सबननी शनाने भाभा पछी विडमता-धतिमति ध्यने पा ४२नारे ता ववस्सिया-व्यवसितापमान सामी १२ ४ाना मध्यभायव जी सा सा से 10मतीये भमरसनिभे-भ्रमरसन्निभान सभराना वा ४ तथा कुच्चफणरुपमाहिए-कचेफणकसन्निभान् सु शत मोजायेat aut केसे-केशान् शानु सयमे लुचई-म्बयमेव लुञ्चति पतना હાથથી જ લેચન કર્યું i૩૦ 170
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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