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प्रियदशिनी टीका अ. १. गा. १३ मिथुगुणप्रतिपादनम्
मम्मति धूमदोपपरिहारगाहमृलम्-आयामंग चे जवोण चं, सीय सोवीर जवोदगं चं।
'गोहीलेए पिडै णीरस तुं, पतंकुलाइ परिव्वंए से भिखू ॥१३॥ छाया-आचामा चैत्र यवोदन च, शीत सौवीरयवोदक च ।।
नो हील्येत् पिण्ड नीरस तु, प्रान्तकुनानि परिरजेत् स भिक्षु ॥१३॥ टीका-'आयामग चेव' इत्यादि।
माधु प्रान्तकुलानिदरिद्रकुलानि भिक्षा परिप्रजेत् गन्छेत् । न तु सर्वदा दानशूराणा धनिनामेर कुलानि गच्छेत् । एप सति नियतपिण्डसेवनाद साधो. धर्महानिः म्यात् । तथा-तेपु प्रान्तकृतादिपु आचामकम् शाकादीनामवसावण चेव-चैव 'च' शब्द पुनरर्थक', 'एव' गन्द पूरणार्थक., च-पुन यवोदन ययभक्त 'जर खोचडा' उनि प्रसिद्ध, शीतम्-शीतल पऍपितमोदनकरपट्टिकादिरम्, उपलभगत्वात्पर्युपिततक्रमिश्रितचणकाद्यन्नम् , तथा-सौवीरयवोदक
तथा-'आयामग' इत्यादि।
अन्वयार्थ-माधु (पतकुलाइ परिचय-प्रान्तकुलानि परिप्रजेत्) आहार के लिये दरिद्रकुलों में भी जावें, ऐसा वह न करे कि सदा यनिकों के घर पर भिक्षा के लिये जाय । क्यों कि ऐसा करना नियतपिण्ड की प्राप्ति होते रहने से उस साधु के लिये चारित्र धर्म की हानि का कारण बन जाता है। अतः दरिद्रकुलों में भिक्षा के लिये जाने पर वहा उसको (आयामग-आचामकम्) शाकादिकों का अवस्रावण-ओसामण, तथा चुरा दुआ मसालेयुक्त अथवा विना मसाले का नमक मिर्चवाला पानी अथवा (जवोदण-यवभक्तम् ) जव का खीचडा अथवा (सीय सौवीर जवोदग च-शीत सौवीरयवोदक च) पर्युपित-(वासी)
तया-"आयामग" त्यादि ।
अन्वयार्थ:-साधु पतकुलाइ परिव्यए-प्रान्तकुलानि परिव्रजेत् माहारने માટે દરિદ્ર કુળમાં પણ જાય, એવુ ન કરે કે, સદા ધનિકના ઘેરજ ભિક્ષા માટે જાય કેમકે, આમ કરવાથી નિયતપિડની પ્રાપ્તિ થતી હોવાથી એ સાધુના માટે પિતાના ધર્મની હાનિનુ કારણ બની જાય છે આથી દરિદ્રકુળમાં ભિક્ષાને માટે नवाथी भने आयामग-आचामक शा मानि भवसाधु-सासाम थाणेला भसालापण २मा १२ मसालानु भी। भश्यावाणु पाणी अथ। जबोदणयवभक्तम् नी भीयही अथवा सीय सौवीर जवोदग च-गीत सौवीरयवोटक च