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________________ ६.४ उत्तगग्ययनसूत्र मात्मगुप्त.-आत्मना गुप्त -कन् उपरत्सरितसमाह. परीपालगीतागादिपरो पहान् असहत सोहान । यात्मनोऽनुशासनपक्ष-हे यात्मन! सतत विचक्षणा भिक्षुरित्युप्रक्रम्य परीपहान सहेत परीपहाणा मान मर्यान तम्त्यमपि तथैव कुरु । इत्येर व्याख्या कार्या। अनेन परीपडसहनोपाय उक्त ॥१०॥ - - - - अणुण्णए नावणए महेसी, न यावि पूंय गरिह च सर्जये। से उजुभाव पडिवज सजेए, निव्वाणमग्गं विरऐ उवेडे ॥२०॥ छाया--अनुन्नतो नाग्नतो महर्षि, न चापि पूजा गही च असजत् । समजुभार प्रतिपद्य सयत', निर्वाणमार्ग पिरत उपैति ॥२०॥ टीका-'अणुण्णा ' इत्यादि। महर्षि समुद्रपाल पूजा-प्रशसा प्रति अनुन्नतोऽभवत् सम्मानितोऽपि गर्दनाक आदिरूप अज्ञान का परित्याग कर (वाष्ण मेन्च अकपमागो-वातेन मेरु' इव अकपमान.) झझापात से मेरु की तरह परीप आदि से अकप उनकर (आयगुत्ते-आत्मगुप्त) तथा कच्छप की तरह इन्द्रियों को गोप कर (परीसहे सहेजा-परीपहान् असहत्) शीत उष्ण आदिपरीपहों को महन किया। आत्मा के अनुशासन पक्षमें-हे आत्मन् । निरन्तर तत्वों की विचा रणा करने मे तल्लीन बना हुआ भिक्षु परीषद आदि को सहन करने में कसर नही रखता है। अत तुम भी अपवनकर इनको सहन करो ॥१९॥ और भी-'अणुण्णए' इत्यादि। अन्वयार्थ-(महेसी-महर्षि) वे समुद्रपाल (मुनि पूय अणुपपाएपूजा अनुन्नत.) अपनी प्रशसा मे गर्व से रहित थे-समानित होने पर वातेन मेरु इव अकम्पमान• आपातथी भे३नी भा परिष माहिथी 11 मनी तथा आयगुत्तो-आत्मगुप्तः यमानी मा६४ छन्द्रियो। ससी परीसहे सहेज्जा-परीपहान् असहत् शीत, BY Rull६ ५२५डाने सडन या मात्माना અનુશાસન પક્ષમા હે આતમન્ ! નિર તર તની વિચારણા કરવામાં તલ્લીન બની રહેલ ભિક્ષુ પરીષહ આદિને સહન કરવામાં કસર રાખતા નથી આથી તુ પણ અકપ બનીને એને સહન કર ૧લા पणी पाणु-"अण्णुणए" त्याहि मन्वयार्थ-महेसी-महर्षि श्ये समुद्रपारा मुनि पूय अणुण्णए-पूजा अनुन्नत પોતાની પ્રશલામાં ગર્વથી રહિત હતા સન્માનિત થવા છતા પણ તેમનામાં જરા
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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