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________________ - - - - - ६२ उत्तगध्ययनम्म स्पृगन्ति-उपतापयन्ति । तत्रतेपु परीपहेपु आतगुग समुपस्थितपु समुद्र पालमुनि अफुकन = कुत्सित जितीति जन-न कुछन -अपनाना माता, हा तात !, इत्यादि कुस्मित गटमन नान अ यसहतम्सोडवान् । अनेन पूर्वगाथार्य एर स्पाटमतिपत्यर्थमुक्तः । ईशा सन स मुनिः पुरातानि%पूर्वभवोत्पादितानि रजासि-रजासोर रजासि-जीपमालिन्यहेतुत्वात धर्माणि अक्षिपत्= परिपहमहनादिभिरपनीतवान। आत्मनोऽनुशासनपधे-हे आत्मन् ! शीतोष्णदशमगाठणस्पर्शरूपा. परिपहा पिरिधा यातकाच देह म्पृशन्ति । परीपह तथा (पिविहा आयका देह फुमति-गिरिधा आतङ्का देहम्स्पृशन्ति) और भी अनेक प्रकार के रोग शरीर को व्यथित करते रहते हे इनसे कायरजन घराफर 'हे मात ! हे तात " इत्यादि शन्न करते हुए सयम से सर्वथा शिथिल बन जाते है, परतु (तत्य-तत्र) उन परीपहों एव उपसर्गो तथा रोगों के आने पर भी वे समुद्रपाल मुनि (अकुकुओ-अकुकृज ) 'हा मान । हा तात !' इत्यादि कुत्सित शब्दों को न करते हुए (अहियामहेजा-अ यसहत) उन मनको शातिभाव से सहन करते थे। इस प्रकार अपने आचार और विचार मे दृढ बने हुए समुद्रपाल मुनि ने (पुराकडाइ रया सेवेज-पुराकृतानि रजासि-अक्षिपत्) पूर्वभवो में उपार्जित रजो को मलीन करने के हेतु होने से रज जैसे ज्ञानावरणीय द्रव्यकर्मो एव भावकों को आत्मासे पृथक कर दिया। जब इस गाथा का अर्थ इस आत्मानुशासनपक्ष में लगाया जावेगा तब इसका अर्थ इस प्रकार घटित होगा-कि-हेआत्मन् । शीत, उष्ण दश मशक एव तणस्पर्श रूप आत का देह फुसति-विविधा आतड्डा देहम स्पृशन्ति मी पण मने प्रारना રોગ શરીરને વ્યથિત કરતા રહે છે તેનાથી કાયોજન ગભરાઈને હે માત હે તાત ' त्याहिमाल मासान सयभथी स पूण पणे शिथिल सनी लय छ परतु तत्थ-तत्र એ પરીષહ અને ઉપસર્ગોના તથા રોગોના આવવા છતા પણ એ સમુદ્રપલ મુનિ अकुकओ-अकुकज 8 भात तातत्यादि मुसित शम्न ४२ता अहिया सहेज-अध्य सहत ते सघ सात साथी सहन ४२ता ता २0 xt रथी पाताना माया भने वियारमा १८ मनसा समुद्राक्ष भुनिये पुराडार रयाइ खेवेज्ज-पुराकृतानि रजासि अक्षिपत पूवामा 60 ४२६। २०नेજીવને મલીન કરવાના હેતુવાળા હોવાવા રજ જેવા જ્ઞાનાવરણીય આદિક દ્રવ્યકર્મો અને ભાવકર્મોને આત્માથી જુદા કરી દીધા જ્યારે આ ગાથાને અર્થ આત્માનું શાસન પક્ષમાં લગાડવામાં આવશે ત્યારે તેને અર્થ આ પ્રમાણે થશે કે હે
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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