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निगुटिगुप्त = मनोशवाय स्पगुप्तियगुप्त, त्रिदण्डविरत = दण्डे भ्या=मनात्रा
पुनविप=ि
,
पायानामशुमव्यापारभ्यो रः दूरीभून कचिदपि प्रतिनन्तरहितः - प्रतिद्धविहार इति यावत् तथा-विगतगोट= राग द्वेपरहितः सन् वसुधा=पृथिवीं विहरति=विचरतिस्म इति श्रीमि इत्यभ्यार्थ पूर्वपद् वो यः ||६०||
उतय
इतिश्री- विश्वविख्यात - जुगढलभ-मसिद्धयाचन पश्चाभावा लापक-मनिशुद्धपधने रुग्रन्थ निर्मापकादिमानमर्द - शाहू छत्रपति - कोल्हा पुर- राजमदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' पढभूषित - कोल्हापुरराजगुरुचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्यत्री घासीलाल्प्रतिविरचितायामुत्तरा व्ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्याग्याया व्याख्याया महानिर्ययीय नाम विंशतितमम ययन सम्पूर्णम् ।
'इयरो वि' इत्यादि ।
अन्वयार्थ -- इधर ( इयरो वि- इतरोऽपि ) अनाथी मुनि भी ( गुणस मिद्धो- गुणसमृद्धः) साधु के सत्ताईस गुणों से युक्त तथा तिगुत्तिगुप्तोत्रिगुप्तिगुप्तः) मन, वचन एव कायरूप गुप्तित्रय से गुप्त सहित और (तिदड विरओ - निदडविरत.) मन, वचन, काय के अशुभ व्यापाररूप दडों से रहित (विहग इव - विहग इव) पक्षी की तरह (विप्यमुकोविप्रमुक्त:) प्रतिवन्ध से रहित विगयमोहो-विगत मोह :) रागद्वेष से रहित - शान्तचित्त होकर (वसुह विहरs - वसुधा चिहरति ) इस भ्रमण्डलपर विचरने लगे । (तिमि - इतिब्रवीमि ) जैसा भगवान से सुना वैमा मैं कहता हू ||६०||
इस प्रकार यह वीसवाँ अध्ययन समाप्त हुआ ||२०||
शन्नना गया पछी सनाथी सुनियो शु अयु तेने, उहे छे - "इयरो वि" इत्यादि मन्वयार्थ --हुवे या तरई इयरोवि- इतरोऽपि सनाथी भुनि पशु गुणसमिद्धोसाधुना सत्तावीस गुणेोथी युक्त तथा तिगुत्तिगुत्तो- त्रिगुप्तिगुम भन, वथन, अने श्राय३य गुप्तित्रयथी गुप्त सहित मने त्रिदंड निरओ - त्रिदडविरत' भन, वथन, अने हायाना अशुभ व्यापार ३५ ६ डोथी रहित विहगइव - विहगइव पक्षीनी भाई विष्पको - विमुक्त' प्रति धाथी रहीत विगयमोहो- विगतमोह रागद्वेषथी रहित शात वित्त मनीने वसुह विहर-वसुधा विहरति मा भूभ उण उपर विधारा लाग्या तिमि - इति प्रविमि नेषु लगवाननी पासेथी साभज्यु छे ते हु हुहु छु આ ઉત્તરાધ્યન સૂત્રનુ વીસસ અધ્યયન સપૂર્ણ મયુરના