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________________ उत्तराध्ययनम्त्र तदामूलम्-उबढ़िया मे' आयरिया, विज्जोमततिगिच्छगा। अवीया सत्थकुसला, मतमूलविसारया ॥२२॥ छाया--उपस्थिता में आचार्या', विद्यामन्त्रचिकित्सकाः। अद्वितीयाः शामकुशलाः, मन्त्रमूल विशारदा. ॥२२॥ टीका-- 'उवडिया' इत्यादि । एव रूपाया वेदनाया सत्या मे मम अतिवेदनादि-रोगानपनेतु विद्यामन्त्रचिकित्सकाः, तत्र-विद्यादेव्याधिष्ठिता, मन्त्र =देवाधिष्ठितः, तभ्या निषित्सका. व्याधिप्रतीकारकारिण', अद्वितीया =अनन्यसमाना:-तत्सटशानामन्येपा मभावात, शास्त्रकुशला-चिरित्साशास्त्रेपु निपुणा, मन्त्रमूलविशारदा' मन्त्रेषु मूलेपु-ओपधीपु च पिशारदा पारङ्गता आचार्या पाणाचार्या' वैद्या उप स्थिता ॥२२॥ मूलम्-ते' में तिर्गिच्छ कुंवति, चाउप्पाय जहाहियं । . न यं दुक्खा विमायति, एसौ मज्झै अणाहया ॥२३॥ छाया-ते मे चिकित्सा कुर्वन्ति, चतुष्पादा यथाहितम् । न च दुःखाद् विमोचयति, एषा मम अनाथता ॥२३॥ उस समय–'उचहिया' इत्यादि। अन्वयार्थ इस प्रकार की उस वेदना के होने पर (मे-मे) मेरे पास उस वेदना का उपचार करने के लिये (विजामतिगिच्छगा-विया मत्रचिकित्सका)विद्या एव मत्र में व्याधिका प्रतीकार करनेवाले (अबीयाअद्वितीया ) अद्वितीय (आयरिया-आचार्या) प्राणाचार्यवैद्यजन जो (सत्य कुसला-शास्त्रकुशला) चिकित्साशास्त्र मे अतिशयरूप से पटु थे और (मतमलविसारया-मत्रमृलविशारदा) मत्रो एव औषधि के विज्ञान में पारगत थे वे (उवहिया-उपस्थिता) उपस्थित हुए अर्थात् आये ॥२२॥ से समय---"उवटीया" त्याल અન્વયાર્થ—-આવા પ્રકારની એ વેદના થવાથી જે-જે મારી પાસે એ વેદનાના 6५यार ४२१। माटे विज्जामततिगिच्छगा विद्यामन्नचिकित्सका विधा मने भथी व्य पिना प्रतिमा ४२वावा अवीया-अद्वितीया द्वितीय आयरिया-आचार्या प्राध्याय धन सत्थकुसला-शास्त्रकुशला यस सभा मतिशय साथी या२ता भने मतमूलविसारया-मत्रमलविशारदा भत्रातमा मोवधिना विज्ञानमा पारगत &al मा उपहिया-उपस्थिता 6पस्थित थया, अर्थात् माव्या ॥२२॥
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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