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________________ ५८२ उत्तगययनम्त्रे मुनिराद-- मूलम्--अप्पणा वि अाहो सिं, सेणिया। मगहाहिवा। अप्पणा अाहो संतो, कह गाहो भविस्ससि ॥१९॥ छाया-आत्मनाऽपि अनायोऽसि, अणिक ! मग पारिप । ! आत्मना अनाथः मन्. कथ नाथी भरियपि ॥१॥ टीमा-'अप्पणाचि' इत्यादि । हे मगधाधिप! श्रेणिक ! त्वम् आत्मनाऽपि स्वयमपि अनाथोऽसि, स्वयमपि स्वस्य योगक्षेमकरणेऽसमर्थोऽसीतिभावः। आत्मनाऽनाया स्वय स्वस्य योगक्षेमकरणेऽसमर्थः सन् व कथ मम नाथो भविष्यसि ? न केनापि प्रा रेण नाथो भवितुमर्हसीति भावः ॥१२॥ ततो यदभूत्तदुच्यतेमूलम्-एव वुत्तो नैरिदो सो, सुसमतों सुविम्हिी । क्यणं अस्सुयपुंच, साहुगे विम्हयेन्निओ ॥१३॥ वार २ नही मिलती है। अतः इसकी प्राप्ति महा दुर्लभ जानकर इस मोगों को भोगने द्वारा सफल करों ॥ ११ ॥ राजा के पूर्वोक्त वचन सुनकर अनाथी मुनि कहते हैं-'अप्प. णावि' इत्यादि। अन्वयार्थ (मगहाहिवा सेणिया-मगधाधिप श्रेणिक) हे मगधाधिपति अणिक ! (अप्पणा वि अणाहोसि-आत्मनाऽपि अनाथोऽसि) तुम स्वय अपने आप जब अनाथ हो-तो (अप्पणा अणाहो सतो कह णाहो भविस्ससि-आत्मना अनाथ सन् कथ नाथो भविष्यसि) तुम मेरे नाय कैसे बन सकते हो ! जो स्वय का नाय होता है वही पर का नाथ होता है ॥ १२ ॥ रानमा ४२ना क्यनने सामगीन मनाथी भुनि छ-"अप्पणापि त्यादि मन्पयार्थ:-मगहाहिवा सेणिया-मगधाधिप श्रेणिक' हे भाधिपति श्रेणि? अप्पणावि अणाहोसि-आत्मनापिअनाथोऽसि तमे पाते या पाताना भाटे मनाथ छ। त्यारे अप्पणा अणाहोसतो कहनाहो भविस्ससि-आत्मना अनाथ' सन् कथ नाथो भविष्यसि तमे भा। नाथ शत भनी शबाना छ। २०१५ નાથ હોય છે તે જ બીજાના નાથ બની શકે છે ૧ર
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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