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किंचमूलम्- केंदतो कटुकुमीसु, उपाओ अंहोसिरो।
हुआसिणे जलतम्मि, पकर्पयो अणंतसो ॥१९॥ छायाकन्दन् फन्दुकुम्भीर, उदुर्भपाठः अधः निराः ।
हुताशने ज्वलति, पपूः अनन्तग. ॥४९॥ टीका--'कदतो' इत्यादि ।।
हे मातपितरी ! पादचरण, अघः शिरा अयोमस्तकः प्रल मानोऽह क्रन्दन् रुदन कन्दुकुम्भीपु-मदर कराही' इति रयाता भाजन (असाया सीया वेयणा मग वेहया-असाना शीता वेदनाः मया वेदिता) यह शीत वेदना मैने सान की है।
इन ४४, ४५, ४०, ४७, ४८ न की गाथाओं का भात्र केवल इतना ही है कि जो सस्पृह है-उनको ही सब कुछ कठिन है तथा दुख हैं। निस्पृहों को न कुछ कठिन है और दुलही है। शारीरिक एव मानसिक वेदनाओं का अनुभव इस ही पर्याय में नवीनरूप स करने में नही आयगा-यह तो कईचार किया जा चुका है। नरको में यहा से भी अनत गुणित उपण वेदनाओं का तथा शीत वेदनाओं का अनुभव किया है। फिर आप लोग हमको भय किस बात का प्रद र्शित करते है ॥४८॥
फिर भी-कदतो' इत्यादि ।
अन्वयार्थ--हे मातातात ! (उड़पाओ अहो सिरो-उर्ध्वपाद अध शिराः) ऊचे पैर एव नीचे शिर होकर मैने ( कदतो-क्रन्दन ) रोना मए वेइया-असाता. शीता. वेदनाः मया वेदिताः मापी असा सवा था વેદનાને પણ મે સહન કરી છે
मा ४४, ४५, ४६, ४७ भने ४८ भी गायायानो माम ला છે કે, જે સસ્પૃહ છે તેને જ બધુ કઠણ છે તથા દુ ખરૂપ છે નિસ્પૃહિને ન કોઈ કઠણ છે, કાઈ ખરૂપ છે શારીરિક અને માનસિક વેદનાઓને અનુભવ આ પર્યાયમાં નવીનરૂપથી કરવામાં નથી આવતો એ તે કઈકવાર કરી ચૂકી છે નરક્રમા અહીંના કરતા અને તગણી ઉણ વેદનાઓને તથા ઠ ડીની વેદનાઓના અg ભવ કરેલ છે તે પછી આપલેકે કઈ વાતને ભય મને કહી બતાવે છે ૪૮
छता प--"कदतो" त्यादि
सन्पयार्थ:- मातापिता! उडपाओ अहोसिरा-उर्ध्वपाद: अधशिरा. 6ये भने नाये भाथु शमीने में करतो-अन्दन राता राता कदुकुभी