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________________ - - - - - - उत्तराध्ययनस तथा-निभृत-निचलपियामिलापादिमिरक्षोभ्य, निगरीरादिनिरपेक्ष भ कारयसम्पत्तवातिचाररहित पा श्रमणत्वसाधुत्व दुष्करम् । 'निहय' इति छप्तमथमान्त पदम ॥४१॥ अपर च--- मूलम्जं हा भुजाहि तरिउ, दुरो रयणायरो । तही अणुवसतेणं, दुक्करो दमसागरो ॥४२॥ छाया~यथा भुजाभ्या तरित, दुप्फरो रत्नाकर. । __तथा अनुपशान्तेन, दुमो दमसागर. ॥४२॥ टीका--'जा' इत्यादि। हे पुत्र ! यथा रत्नार समुद्री भुजाभ्या तरीतु दुप्फरः । तथाअनुपशा तेन-उत्कटपाययुक्तेन पुरुषेण दमसागर-उपशमसमुद्रस्तरित दुष्करः। इह उपशम प्राधान्यख्यापनार्थ समुद्रेणोपमीयते । पूनि तु गुणोदधिरित्यनेन सकलगुणानां ग्रहणम् । अतो न पौनरुत्तयम् ॥४२॥ द्वारा (मदरो गिरि तोलेउ दुफरो-मन्दर. गिरि तोलयितु दुष्कर') मेरु पर्वत का तोलना अशक्य है (तहा-तथा) उसी प्रकार (नियनिभृतम्) निश्चल-विपयाभिलापा से अक्षोभ्य तथा (निस्सक-नि शक) शरीरादिक निरपेक्ष अथवा शका नाम के अतिचार से रहित (समणत्तण-श्रमणत्वम् ) साधुपना भी (दुकर-दुकरम् ) दुप्फर है ॥४१॥ तथा-'जहा भुजाहिं' इत्यादि। अन्वयार्थ---(जहा रयणायरो भुजाहिं तरिउ दुक्करो-यथा रत्ना करः भुजाभ्या तरितु दुष्कर ) जिस तरह समुद्र का भुजाओं द्वारा पार करना अशक्य है । (तहा अणुवसतेण दमसागरो दुक्करो-तथा अनुप शान्तेन दमसागरः दुष्कर.) उसी तरह उत्कट रुपाययुक्त प्राणी द्वारा गिरि तोलेउ दवरी-मन्दर गिरिः तोलयित दर मे३ पतन तोमवार म४य छ तहा-तथा का प्रमाणे निहय-निभृतम् निश्चम-विषमताषय माल्य तथा निस्सक-नि'शफ शरीशनिश्चक्ष अथवा शनामना मतियारक्षा २हित समणतण-श्रमणत्व साधुपाशु पर भूम। दुक्कर-दुष्करम् ६०४२ छ १४१॥ तथा-"जहा भुजाहि । छत्यादि भन्वयार्थ - जहा रयणायरो भुजाहि तरिउ दक्रो-यथा रत्नाकर. भुजाभ्या तरितु दुष्कर नेश भुजमाथी समुद्रने पा२ ४२वा मराय छ तहा अणुवसतेण दमसागरो दुकरो-तथा अनुपशान्तेन दमसागरः दुष्कर. मे सत कृष्ट प्रकार
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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