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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. १९ मृगापुमचरितवणनम् ४५७ तया-उग्रगोर ब्रह्म नामाटिकाविशुद्ध ब्राह्मचर्यनाम महारत च यावनी धारपितव्यम् । एतत् कामभोगरसजेन रामो-शब्दरूपलक्षणी, भोगान्य. रसस्पर्शलपणास्तेपा रमजेन-तत्नु वानुभविना त्वया मुदुष्करम्-दुरारा-यम् । यो हि कामभोगरमानभिन्न. सोऽनुभवाभारादेतन्नायामेन यानीव पालयितु शक्नोति । परन्तु तदभिजेन त्वयतत्सदुपरमिति भावः । अनेन चतुर्थमा प्रतम्य दुप्फरत्व प्रचितम् ॥२८॥ पञ्चममहारतम्य दुरतामाह-- मूलम्-धणधन्नपेसबग्गेसु, परिग्गहविवजण । सव्वारभपरिच्चाओ, निर्ममत्त सुदुक्करम् ॥२९॥ छाया-~नधान्यपेप्यवर्गेप, परिग्रहरिवर्जनम् । सरिम्भपरित्यागो, निर्ममत्व सुदुष्करम् ॥२९॥ टीका--'घणधन्न' न्यादि । हे पुन ! साना धन मान्यप्रेप्यवर्गेपु-धन-हिरण्यमुवर्णादि, धान्य गालिअब्रह्मचर्यस्य विरतिः) अब्रह्म का त्याग करना होता है तथा (उग्ग मच्चय चम धारेयव्व-उप महानत ब्रह्मधारयितव्यम्) घोर-नववाड से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। यह प्रत (कामभांगरमन्नुणा सुदुक्करकामभोगरसजेन दुप्फरम) नाम-शब्दस्प तथा भोग-गधरस एव स्पर्श के रस से परिचित हुए तुम्हारे द्वारा दुरारा य है। जो काम भोग रस से अनभिज्ञ है वह भले ही इसको अनायास यापन्नीव पाल सकता है परतु जो इस रसका रसिया बन चुका है उस से इस का सब घाड से पालन होना दुष्कर है इस से वेटा इस व्यर्थ के चकर मे तुम मत फैसो इस में चौथे महानत की दुष्करता कही है। ॥ २८ ॥ पिरतिः अनमययना या श्वाना खाय जी, उग्ग महव्यय वभ धारेयन्दउग्र महावत ब्रह्मधारयितव्यम चौर-नवादी विशुद्ध प्राय पान ४२११नु बाय २मा नत कामभोगरसन्नुणा सुदुकर-कामभोगरसन दुष्करम् ४ाम-શબ્દરૂપ તેવા ભોગ, ગ ધ રસ અને સ્પર્શના રસથી પરિચિત બનેલ તમારાથી થઈ શકશે નહી જે કામભોગ રસથી અજાણ છે તે તે ભલી ભાતિથી એને અનાયાસે જીદગીભર પાળી શકે પરંતુ જે આ રસના રસિયા બની ચૂક્યા છે તેનાથી તેનુ સઘળી રીતે પાલન કરવું મુશ્કેલ છે માટે હે બેટા ! વ્યર્થમાં એ ચકકરમા તુ ન ફસાઈશ આમ ચેથા મહાનતની દુષ્કરતા બતાવવામાં આવેલ છે ! ૨૮ છે
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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