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________________ -so उतयन टीस--'त पास' इत्यादि । स मृगापुत्री युवराजः अनिगा = निरनिया यातं स पश्यति । स चिन्तयति मन्य ईधन रूपमा मिनापि पूर्वमिति ॥ ६ ॥ मूलम् -- साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झर्वसाणम्मि सोहणे । मोह गयस्तै संतस्से, जाई सरणं समुपपन्नं ॥७॥ छाया - साधादर्शने तम्प, अभ्यमाने शोभने । मोद गतम्य सतो, जातिम्मरण समुत्पन्नम् ||७| टीका- 'सास्म' इत्यादि । साधो =सयतम्य, दर्शने सति मोr=' कुनै रूप ष्टम्' इविचिन्तनेम मृच्छीगतस्य =माप्तस्य सतस्तस्य मृगापुत्रस्य शोभने क्षायोपशमिकाभाववर्त्तिनि 'त पास' इत्यादि ! अन्वयार्थ - (मियापुते - मृगापुत्र ) मृगापुत्रने (अणिमेसा दिट्ठीए - - अनिमेषया दृष्टया) निमेष रहित दृष्टि से (त पासह-त पठयति) उस सयत को देखा और विचार किया कि ( मन्ने मन्ये) म मानता हू (म-मया) मैने (रिस रूप - ईदृश रूपम् ) ऐसा रूप ( पुरा - पुरा ) पहिले (दिपुत्र- दृष्टपूर्वम्) कहीं देता है ॥ ६ ॥ 'साहस' इत्यादि । अन्वयार्थ - (साहुस्स दरिसणे - साधो दर्शने सति साधुके दर्शन होते ही (मोह गयस्स-मोह गतस्य) "कहा पर ऐसा रूप देखा है" इस प्रकार के विचार से मृर्च्छा को प्राप्त हुए (सतस्स - सत') सज्जन उन (मिया पुत्तस्स - मृगापुत्रस्य) मृगापुत्र को (माहणे अज्झवसाणम्मि - शोभने अध्य “a qaz” deuft ! मन्वयार्थी - मियापुते - मृगापुत्रः भृगा पुत्रे अनिमेसाए दिट्ठीए - अनिमेषया हृष्य्या अनिभेष दृष्टिी व पात पश्यति मे सयतने लेया अने विचार हैं, मन्ने-मन्ये भने सागेछेउ, मए-मया भे इरिस रूव - इहश रूपम् भावु स्व३५ वेषपुरा - पुरा पडेला दिडपूव्व-दृष्टपूर्वम् अर्ध स्थणे लेयु है ॥ ६ ॥ " साहुस्स" त्याहि ! अन्वयार्थ -- साहुस्स दरिसणे - साधोर्दर्शने साधुने नेता मोहगयस्स - मोह गतस्य "भावु ३५-वेष मे या लेयेस छे" या प्रहारनो विचार पुरता उरता तेने भून्छ भावी गर्ध सतस्स-सत सन्न सेवा मे मियापुत्तस्स - मृगापुत्रस्य भृगा थुत्रने सोहणे अज्झवसाणम्मि - शोभने अध्यवस्तने क्षायोपशमि लाववर्ती
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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