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________________ १३४ - उत्तगध्ययनसमे अत एर-सत्यः सत्यवार आप्त इत्यर्थः तथा-सत्यपराक्रमःपत्यपीय. ज्ञातक' ज्ञातपुत्रो महावीर इति एते क्रियावादय' कुत्सित प्रभाषन्ते इति प्रादुरकापी-प्रकटितवान् ॥२४॥ तेपा क्रियावाद्यादीना फलमाहमूलम् -पंडति नरए घोरे, जेनरा पावकारिणो । दि' चं गैइ गच्छति, चरित्ता धम्ममारिय ॥२५॥ या-पतन्ति नरक गोरे, ये नरा पापकारिण । दिव्या च गनि गन्छन्ति, चरिता धर्ममार्यम् ॥२५॥ टीका--'पटति' इत्यादि । पापकारिणः पाप गर्नु शी- येपा ते तथा-क्रियायादिकृतासत्परूपणा परायणा य नरा:-ते पोरे-नित्यायकारादिना भयानके नरके सोमन्तकादि यह अभिमाय अपने मनसे नहीं कहा गया है सो करते हैंइत्यादि ___ अन्वयार्थ-बुद्ध-युद्ध ) युद्ध-तत्व ज्ञाता,(परिनिगुडे-परिनित ) कपायरूप अग्नि के सर्वथा शान्त हो जाने से सब तरह से शीलीभत हुए तया (विनाचरणसपन्ने-विद्याचरणमपन्न ) क्षायिक ज्ञान एव चारित्र से सपन्न, इसीलिये (सन्चे-सत्य') मत्यवाणी बोलने वाले आप्त-तथा (सञ्चपरकमे सत्यपराक्रम) अनतवीर्यसपन्न ऐसे (नायएज्ञातक) ज्ञातपुत्र श्री महावीर प्रभुने ही (इड पाउरे-इति प्रादुरकापीत्) 'ये क्रियावादी आदिक कुत्सित बोलते है' इसका स्वरूप कहा है। हमने अपनी तरफ से ऐसा नहीं कहा है ॥२४॥ આ અભિપ્રાય પિતાના મનથી કહેવામાં આવેલ નથી, તેને કહે છે - "" इत्यादि। मन्याय-पद्ध-बुद्ध मुद्ध तत्वज्ञाता जी ने परिनिव्वुडे-परिनिवृत्त કષાયરૂપ અગ્નિના સંપૂર્ણપણે શાન્ત થઈ જવાથી સઘળી બાજુથી શીતળ એવા તથા विज्जाचरणसपन्ने-विद्याचरणसपन्न क्षायिशान भने यात्रियी मन मेथी मन्चे-सत्य सत्यवाणी मालवाaal तथा सच्चपरक्मे-सत्यपराक्रम मनात वियं सपन्न सेवा नायए-ज्ञातर शातपुत्र श्री महावीर प्रभु "l इइ पाउरे-इति प्रादुरकार्पित "21 ठियावा वगैरे मोटु माले " तेन સ્વરૂપ બતાવેલ છે અમે અમારા તરફથી કાઈ કહેલ નથી ૨૪
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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