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________________ 12 प्रियदर्शिनी टीका अ १७ पापश्रमण-वम्पम् चम्नु प्रतिलेसपति, किंचिन्न प्रतिलेखयति, अविपिना वा प्रांतलेपयतीत्यर्थः। तपा-पानरम्पल-पार च सम्वन्ट च उपर मणत्वाद म्पनीय समुपचिम्, प्रति लखनक्रियायाम् जनायुक्त अनुपयुक्ती भाति, म पापमण इत्युच्यते ॥९॥ तपा--- म्यम्-पडिलेहेड पमत्ते से ज कि चि हॅणिसामियों। गुरु परिवभाए णिच्च, पारसमणे ति' वुड ॥१०॥ छाया-प्रतिरेग्वर्यात प्रमत्त स , यत् किंचिद् हु निगम्य । गुरुपरिभाश्री नित्य, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१०॥ टीका--'पडिलेहेड' इत्यादि । यत्किचिद् ह 'ए' गन्दोऽप्यर्थे, यत्किचिदपि या काचिदपि वाती नि शम्य श्रुत्वा तव्यग्रचित्ततया प्रमत्त सन् प्रतिलेग्मयति-प्रखपानाटे प्रति करता है-कितनेक उपकरणो का प्रनिलेवन करता है, कितनेकका नही करता है अथवा अविधिपूर्वक प्रतिलेग्वना करता है, तया (पायकाल जयउमड-पात्रकम्बलम अपोन्मति) पात्र एव कम्बल आदि अपनी उपरिकी सभाल नहीं रग्यता है किसी को कही पर फिसी को कही पर इस तरह से उनको जहा तहा रय देता है एव (पडिलेहणा अणा उत्त-प्रतिलेग्बनायामनुपयुक्त.) प्रतिलेग्वन क्रियामे जो अनुपयुक्त अर्थात् उपयोगी नहीं रखा-रहता हो-प्रतिलेग्वन क्रिया करता तो है पर उममे उसका उपयोग न लगा हो ऐसा साधु (पावसमणेत्ति बुन्चडपापश्रमण इत्युच्यते) पापश्रमण कहा गया है ॥९॥ तथा-पडिलेहेह" टत्यादि__अन्वयार्थ-जो सायु (ज़ फिचि णिसमिया-यत् किञ्चित अपि निगम्य) इधर उधर की बातो को सुनता हुआ (पडिलेहेद-प्रतिलेखयति) પ્રતિલેખન કરે કેટલાકનું કરતા નથી અથવા અવિધિપૂર્વક પ્રતિલેખન કરે છે, तथा पायकल अयउज्झट-पात्रमवलम अपोज्झति पात्र मन ४० मापातानी સઘળી ઉપધિની સંભાળ રાખતા નથી કેઈને કયા અને ડેઈને કયા એ રીતે એને arया त्या रामी हे छ भने पडिलेहणा अणाउत्ते-प्रतिलेखनायामनुपयुक्त પ્રતિલેખન ક્રિયા કરે તો છે પરંતુ તેમાં તેને બરાબર ઉપગ કરેલ ન હોય આવા સાધુને પાપશ્રમણ કહેવામા આવેલ છે ! तया-"पडिलेहेद" त्याहि । स-पया- माधु ज किंचि णिसामिया यत्किंचित् अपि निशम्य महीनीनी पाताने मालती रहीन पडिलेहेद-प्रतिलेग्वयति पत्र । पानी प्रतिमना
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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