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________________ उत्तराध्ययन सूत्रे जनकानि सीपशुपण्डरसहितस्थानादानि वर्जयेत् । अन्यथा - जिनाज्ञाभङ्गचारित्र विराधनामिथ्यावादयो दोपा भवन्ति । १४॥ एतद्वर्जr सयत यत्कुर्यात्तदाह ८० hang मूलम् -- धम्मारामे चरें भिम्बू, धीडेमं धम्मसारही । धम्मारीमरए देते, वभचेरसभाहिए ॥१५॥ छाया--र्मारामे चरेद भिक्षु, धृतिमान धर्मसारथि । धर्मारामरतो दान्तो ब्रह्मचर्यसमाहितः ॥१५॥ टीका- 'धम्मारामे' इत्यादि । धृतिमान् = प्रति - परीप होपसर्गसहनक्षमता, तद्वान् धर्मसारथि' = धर्मस्यधर्मस्परम् सारथि - वाहक 'ठिओ उठाए पर इति वचनादन्यानपि यता धर्मारामरत - श्रुतचारिनधर्मोद्यान विचरणशील, दान्त , वर्जयेत् ) परित्याग करे । तथा (सव्वाणि समादागाणि सर्वाणि शकास्थानानि ) का काक्षा विचिकित्सा आदि जनक स्त्री पशुपडक महित आदि दश स्थानों को भी ( बजेजा - वर्जयेत् ) छोडे । नही तो जिना ज्ञाभग चारित्र विराधना एवं मिध्यात्व आदिक दोषों का पात्र उस माधु को होना पडेगा || १४ || 'मे' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( घीडम - प्रतिमान् ) परोपर एवं उपसर्ग के सहन करने में क्षमतावाला तथा ( धम्मसारही - धर्मसारथि. ) धर्मरूप रथ का सारथि - "टिओ उठाव परम्" इस वचन के अनुसार अन्यजनों को भी धर्म मे प्रवृत्ति करनेवाला अतण्व ( धम्मारामरण-धर्मारामरत ) श्रुतचारित्ररूप धर्मोद्यान में विचरण शील तथा (दते-दान्त ) इन्द्रिय परिवर्जयेत् परे तथा सव्वाणि समाहाणाणि सर्वाणि शकास्थानानि तथा શક -આશંક વિચિકિત્સા આદિ જનક સ્ત્રી, પશુ, પ હક હિત આદિ ધ્ય સ્થાનાને जेज्जा - वर्जयेत् छोडे नही तो भाज्ञा लग यरित्र विराधना अने મિથ્યાત્વ આદિ દોષોને પાત્ર એ સાધુએ થવુ પડી ॥૧૪॥ "धम्मारामे धत्याहि । अन्वयार्थ - धीइम - धतिमान् परिषद्ध मने उसने सहन श्वामा क्षमता वाणा तथा धम्मसारही - धर्मसारथि धम ३५ रथना सारथी “ठिओ उ ठावए परम्" આ વચન અનુસ ૨ અન્ય જાતે પણ ધર્મોમા પ્રવૃત્તિ કરાવવાવાળા, અતએવ धर्मारामरए - धम्मारामरत श्रुतयास्त्रि३य धम ध्यानमा वियरशोस तथादते-दान्त
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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