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उत्तराध्ययनमः अशुनराशत्तिकमित्यर्थ', एताश तत्म्यानम् अस्ति । भावान्तारा'-भौघा'जन्मपरम्परा तस्य अन्त करा: उच्छेदका मुनयो गत्म्यान सम्माता-ममधि गताः न शोचन्ति=शोकभानो न कदाचिदपि भवन्ति । 'सासय' इत्यत्र मकारो श्रात्तात् । केमिना हि द्वादश प्रश्ना प्रमानुसारेण कृताः। तथाहि-धर्मार्थत्वात्स फिर उसी स्थान को कहते है-'त ठाण' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(त ठाण-त स्थान) ऐसे उम स्थान में प्राप्त हुए जीव का (सासय वाम-शाश्वतवास) पाम शाश्वत रहा कर वह स्थान (लोगग्गम्मि-लोकाग्रे) लोक के अग्रभाग में है। तथा (दुरारुहदुरारोहम्) दुरारोह है। सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय द्वारा ही जीवों को यह प्राप्त होता है। (भवोहतकरा मुणी-भवीघान्तकरा मुनयः) जाम परम्परा का अत करने वाले मुनिजन (ज सपत्ता न सोयति यत् सम्प्राप्ता न शोचन्ति) इस स्थानपर आकर फिर शोक से कभी लिप्तनही होते है ।
. इस स्थान से निर्वाण आदि नामों से जो कहा गया है उन नामो का उस स्थान के साथ सम्पन्ध इस प्रकार से जानना चाहियेइस स्थान को माप्त कर प्राणी कर्मरूप अग्नि के इकदम वुझ जाने से निलकुल शीतीभूत हो जाते है इसलिये इसको "निर्वाण" इस नामसे सोधित मिया गया है। शारीरिक एव मानसिक बाधा जीवों को यहा नहीं होती है क्यों कि इन दोनों का यहा सर्वथा अभाव हो जाता है अत' इसको "अबाध" 'सा भी कह दिया गया है । इस को पाकर प्राणि
शमा को स्थाननेछ--"त ठाण" या
मन्वयात ठाण-त स्थान सेवा स्थान प्रा२ख पनी सासय वासशाश्वतवास पास शायत रहा ४२ छेमा स्थान लोगग्गम्मि-लोकाग्र नाम भागमा छ तथा दुरारुह-दुरारोहम् दुसरा छे सभ्य ४ मा २त्नत्रय द्वा सेलो प्रात थाय छ भवोहतकरा मुणी-भवौधान्तकरा मुनय म५२ पराना मत ४ाणा मुनिशन ज सपत्ता न सोर्यात-यत् सम्पाप्ता न शोचन्ति ॥ સ્થાન ઉપર પહોંચીને પછી શેકમાં કદી પણ લિપ્ત થતા નથી
એ સ્થાનને નિર્વાણ આદિ નામથી જે કહેવામાં આવેલ છે એ નામને એ રથાનની સાથેનો સ બ ધ આ પ્રકારથી જાણુ જોઈએ
એ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને પ્રાણી કર્મરૂપી અગ્નિ એકદમ બુઝાઈ જવાથી બિલ કુલ શીતીભૂત થઈ જાય છે. આ કારણે એને “નિર્વાણુ” આ નામથી સ બધિત કરવામાં આવે છે. શારીરિક તેમજ માનસિક બાધા ને એ સ્થાનમાં થતી ન કેમકે એ બન્નેને ત્યા સપૂર્ણપણે અભાવ થઈ જાય છે આથી એને “અબાધ” એવું