SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1086
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महोदकरोगस्यम्भुभितपातालकलगातेरितपटममायोतो गम्य गनिःगमन न विद्यते । महोर कमवाहस्तत्र गन्तु न गन्माताति निरुपद्रा' ग मा द्वीप इति भार ॥६॥ केशी प्राह--- मूलम्-दीवे' यं इंड के बुत्ते, केसी गोयममव्ववी । तओ के सिं चैवत तु, गोयमोईणमव्यवी ॥७॥ छाया--द्वीपश्च इति क उक्त' ', केशी गौतममपीत् ।। तत केगिन पन्त तु, गोतम इदमनमीत् ॥६७|| टीका--'दीवे य' इत्यादि । व्यारया पूर्वपत् ॥६७॥ गौतमः माह-- मूलम्-जरीमरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पडद्या ये, गई सरणमुत्तम ॥६॥ छाया--जरामरण वेगेन, वाह्यमानाना प्राणिनाम् । धर्मों द्वीपः मतिष्ठा च, गति' शरणमुत्तमम् ॥६॥ टीका-- 'जरामरणवेगेण' इत्यादि। __ हे भदन्त ! जरामरणवेगेनजरामरणरूपमहोदकमवाहेण-वाद्यमानानाउदगवेगस्स गई तत्थ न विजइ-महाउदकचेगस्य गतिस्तत्र न विद्यते) वेगशाली प्रवाह की गति वहा नही है । अर्थात् वह महाद्वीपरूप स्थान विलकुल निरुपद्रव है ॥६६॥ जब गौतमस्वामी ने इस प्रकार कहातव केशीश्रमण के चित्त मे यह यात जगी कि ऐसा वह दीप क्या है ? अत उन्होंने पूछा-'दीवे य' इत्यादि । हे गौतम । वह दीप ऐमा कौनसा है। तब गौतमने कहा---॥६७॥ क्या कहा सो कहते है-~जरामरणवेगेण' इत्यादि। __ अन्वयार्थ--(जरामरण वेगेण धुज्झमाणाण पाणिण-जरामरणवेगेन वाद्यગતી નથી અથતુ એ મહાદ્વીપરૂપ સ્થાન બિલકુલ ઉપદ્રવ રહિત છે ૬ દા જ્યારે ગૌતમ સ્વામીએ આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે કેશી શ્રમણના ચિત્તમા એવી વાત गी, येव सदीय छ १ माथी तेरे ५७यु - "दिवे य" त्या ! હે ગૌતમ! એ દ્વીપ એ કર્યો છે? ત્યારે તમે કહ્યુ -- ના शुयुतn --जरामरणवेगेण" त्या ! मन्पयाथ---जरामरणवेगेण बुज्झमाणाणपाणिण-जरामरणवेगेन वाह्यमानना
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy