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________________ - - - - - - - - ९४८ उत्तराध्ययनसूत्रे चनानि कुपथा इत्युक्तम् । हिम्परः एग निनोक्तो मार्गः उसमा उत्तएतमा विनयमूलवादय निनोक्तो मार्ग' मर्ममार्गापेक्षया श्रेष्ठ उति यावत् ॥६३।। पुनः केशी मुनि. माहमूलम्-साँहगोयम! पणा ते, छिन्नो में ससओ इमो। अन्नों वि" संसओ मेझ,त" में कहसु गोयमा !॥६॥ छाया--साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे सशयोऽयम् । ___ अन्योऽपि सगयो मम, त मे स्थय गौतम ! ॥६४॥ टीका-'साहु' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ॥६॥ मूलम् महाउदगंवेगेण, वुज्झमाणाण पाणिण । सरेणं गंड पट्ट य, दीव के मन्नसी मुंणी ॥६५॥ आदि दर्शनो के अनुयायी जितने भी है वे सय (उम्मग्गपटिया-उन्मार्ग मस्थिता) उन्मार्गगामी है। क्योकि ये कपिल आदि दर्शन सब कुमार्ग है। तया (तु जिणमम्माय मम्मग-तु जिनाख्यात' सन्मार्गः) जिनेन्द्रद्वारा प्रतिपादित मार्ग ही एक सन्मार्ग है, क्यों कि विनयनल होने से (एसमग्गे उत्तमे-एप मार्गो हि उत्तम.) यही सर मार्गों की अपेक्षा श्रेष्ठ मार्ग है ॥६॥ . गौतम प्रभु की इस बात को सुनकर केशी मुनि ने कहा-- 'साहु' इत्यादि। हे गौतम मेरे प्रश्न का उत्तर देने के कारण आपकी प्रज्ञा बहुत ही अच्छी है। मुझे और भी सशय है अत उसकी भी नित्ति आप करे ॥६४॥ भानुयायी २८सा में ये ५५उम्मग्गपट्टिया-उन्मार्गमस्थिता 6भागामी छ हेम में पिa I FAन मधु ४५ तथा तु जिणमक्खाय सम्मग्गतु जिनारयात सन्मार्ग नेन्द्र द्वारा प्रhिild मा मेस मा म है, विनयभूण पाथी एस मग्गे उत्तमे-एप मार्गों हि उत्तम माल सपा મર્ગોની અપેક્ષા શ્રેષ્ઠ માર્ગ છે ૬૩ शी श्रमण --"महाउदगवेगेण" त्या ! હે ગૌતમ મારા પ્રશ્નનો ઉત્તર સારી રીતે આપવાથી આપની પ્રજ્ઞા ઘણી જ ઉત્તમ છે અને બીજે પણ સ શય છે જેથી આપ તેને પણ દૂર કરે
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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