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________________ उत्तगयन चरणस्य परलोके फल भविपति न पा' इत्येर स्वर्गापमुखमाप्तिसशयरूपा वा समुत्पद्येत । भेद या लभतेमादीना व्याख्या पूचद यो"या। अत पत्र तस्मात् खलु-निश्चयेन निग्रन्थ. वीणा कया ना कश्येत् ॥५॥ ॥ इति द्वितीय ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानम् ।। ___ अथ तृतीयमाह मूलम्--णोइत्थीहि सद्धि सन्निसिज्जागए विहरिता हवइ, से निगंथे। तें कहमिति चे आयरियाह-निगंथस्स खल्लु इत्याहि सद्धि नियंन्यस्य खलु स्त्रीणा कया कथयतोत्रमचारिणो समचर्य का वा काक्षा वा विविकित्सा वा समुप्तधेत) जो साधु इस प्रकार की कथा करता है उस ब्रह्मचारी साधु के ब्रह्मचर्य मे सापु को स्वय में इसका सेवन कर या नहीं इस प्रकार का सशय हो सकता है। कांक्षा-मैथुन करने की इच्छा उत्पन्न हो सकती है। विचिकित्सा-इस प्रकार के कठिन धर्माचरण का परलोक मे फल होता होगा या नहीं इस प्रकार की स्वर्ग और अपवर्ग की सुखप्रासि रूप सशय भी उत्पन्न हो सकता है । इसी तरह (भेय वा लभेजा उम्माय वा पाणिज्जा दीह कालिय वा रोगायक हवेज्जा केवलि पण्णताओ धम्माओ वा भसेज्जा-भेद वालभेत उन्माद वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिक रोगातक वा भवेत् केवलिप्रजप्तात् धर्मात् वा भ्रसेत ) इन समस्त पदो का अर्थ पीछे जैसा लिखा गया है वैसा ही यहाँ पर लगा लेना चाहिये। (तम्हा नो इत्थीण कह कहेज्जा-तस्मात् नो स्त्रीणा कथा कथयेत् ) इसलिये निर्ग्रन्थ साधु को स्त्री कथा नहीं करनी चाहिये ॥५॥ चेरे सका वा कवा वा वितिगच्छा वा समुपज्जेज्जा-ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शका वा काक्षा वा चिकित्सा वा समुत्पद्येत ये ब्राया। साधुना ब्रह्मय भाઆનુ સેવન કરૂ, કે નહીં? આવી જાતને સ શ થઈ જાય છે શક –મથુન કરવાની ઈચછા પણ આથી જાગી જાય છે ચિકિત ના આ પ્રકારના કઠણ ધર્માચરણથી પરલોકમાં એનું ફળ મળશે કે નહી ? આ પ્રકારની સ્વર્ગ અને ઉપવન सुपाति३५ सय ५९ पन्न थ छ । रीत भेय वा लभेजा उम्माय वा पाउगिज्जा दीहकालिय वा रोगायक वा हरेजा-केवलि पग्णत्ताओ पम्माओ रा भसित्ता-भेद वा लभेत उन्माद वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिक रोगातर वा भवेत केवलिप्रज्ञप्तात् धमात् वा भ्रसेत से समस्त पहाना मथ पाछ प्रमाणे કહેવાયેલ છે બે જ અહી પણ સમજી લે જોઈએ આ માટે લિગ્રંથ સાધુએ સ્ત્રો કથા ન કરવી જોઈએ પા
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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