________________
७९२
-
-
उत्तराभ्ययमसले अथ शिष्यमुपदिशन्नाहमूलम् विगिच कम्मुणो हे', जैस सचिणु खंतिएँ ।
सरीरं पाढव हिच्चा, उड्ढं पकैमई दिसं" ॥ १३ ॥ छाया-वेरिग्धि कर्मणः हेतु, यशः सचिनु क्षान्त्या।
शरीरं पार्थि हित्वा, ऊर्धा प्रक्रामति दिशम् ॥ १३॥ टीका-'विगिंच' इत्यादि।
हे शिष्य । कर्मणः-अत्र प्रक्रमात् मानुपत्वप्रतिवन्धकस्य कर्मणः हेतु कारण मिथ्यात्वापिरतिकपाययोगादिक, वेपिग्धि-पृथक कुरु, तथा यश यशस्कर सयम, विनय चेत्यर्थः क्षान्त्या उपलक्षण चैतन् तेन मार्दवादिभिरपि सचिनुवर्धय रक्षये स्पर्थः । तस्य मुख्य फलमाह- सरीरं' इत्यादि। य एक करोति, स पार्थिव अन्यदर्शनप्रसिद्वया पृथिवीविकार शरीर हित्या-त्यत्या ऊर्धा दिश-मोक्ष पति, प्रक्रामति-भकर्षण गच्छति ॥ १३॥ ___ अन्वयार्थ हे शिष्य ! (कम्मुणो-कर्मणः) मनुष्यभवके प्रतिबधक कर्म के
(हेउ-हेतुम् ) कारण-मिथ्यात्व, अविरति, कपाय एव अशुभयोगादिकको (विगिंच-वेविग्धि) अपनी आत्मा से पृथक करो। तथा-(जम-यशः) यशस्कर सयम एव विनय को (खतिए-क्षान्त्या) क्षान्ति आदि के बारा (सचिणु-सचिनु) वढाओ-रक्षित करो। ऐसा जीव (पाढव सरीर हित्वा-पार्थिव शरीर हित्वा) पार्थिव-पौद्गलिक इस शरीर को छोड़कर (उडूढ दिस पक्कमई-उया दिश प्रकामति) उर्ध्व दिशा की ओर-मोक्ष सन्मुख-मोक्ष के प्रति प्रयाण करता है।
भावार्थ-इस गाथा द्वारा सत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि जो ___म-क्याथ-3 शिष्य ! कम्मुणो-कर्मण मनुष्यसपना प्रतिम-रोनार माना हेउ-हेतुम् ४१२२ मिथ्यात्प, मपिरति, पाय भने अशुभयोगविरेने विर्गिचवेविग्धि साप पाताना मामाभायी हो। तथा जस-यश २०७२ सयम मन विनयर खतिए-क्षान्त्या शान्ति विगेरे २सचिणु-सचिनु पधारे।२क्षित ४२। मेव। 4 पाढव सरीर हित्वा-पार्थिव शरीर हित्वा पार्थिव-पृथ्वी S५२ पोति शरीरने छ। उन दिस पकमई-उर्ध्वा दिशम् प्रक्रामति ઉદિશા તરફ-મક્ષ સન્મુખ-મેક્ષના તરફ પ્રયાણ કરે છે
ભાવાર્થ-આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર એવું પ્રદર્શિત કરે છે કે જે