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उत्तराभ्ययनरने मूलम्-कम्मसंगेहिं संमूढा, दु.क्खिया बहुवेया। - अमाणुसासु जोणीसु, विर्णिहम्मति पाणिणो॥६॥ छाया-कर्मसगै संमूढाः, दुःखिता बहुवेदनाः।
अमानुपीपु योनिपु, गिनिहन्यन्ते माणिनः ॥ ६ ॥ टीका-'कम्मसगेहिं ' इत्यादि।
कर्मसगैः-नानावरणीयादि कर्मसयोगः, समूढा-तत्वातत्वविवेकरहिताः, दुःखिताः विविधदुःखजालजनकरोगशोकादिसमाकान्ता., वहुवेदना-मन्द तीवतीनतर-पीडायुक्ताः माणिन , अमानुपीपु-एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरि न्द्रियमनुष्यभिनपञ्चेन्द्रियरूपासु च, योनिपु कर्मभिः विनिहन्यन्ते पुनः पुनरुत्पधन्ते । अतो मानुपत्व दुर्लभमिति भार. ॥ ६ ॥ को सफल बनाने की ओर लक्ष्य देना यही सब से प्रथम कर्तव्य है ॥५॥ __ "कम्मसगेहिं" इत्यादि
अन्वयार्थ-(कम्मसगेहिं-कर्मसगैः) ज्ञानावरणीयादिक कर्मों के सयोग से (समूढा-समूढा ) तत्त्वातत्व के विवेक से विकल बने हुए अतएव (दुक्खिया-दु:खिताः) विविधदुःखजनक ऐसे रोग, शोक आदि से समाकान्त एव (बहु वेयणा-बहु वेदनाः) मन्द, तीव्र, तीव्रतर पीडाओं से युक्त ये (पाणिणो-प्राणिनः) ससारी प्राणी (अमाणुसासु जोणीमुअमानुषीषु योनिपु) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एव मनुष्य भिन्न पञ्चेन्द्रिय इन योनियों मे (विणिहम्मति-विनिहन्यन्ते) पुनः पुनः जन्ममरणजनित दुःख पाते हैं। इसलिये मनुष्यभव हुर्लभ है। જોઈએ અને તે પ્રાણીમાત્રનું એક માત્ર સૌ પ્રથમ કર્તવ્ય છે કે પ .
"कम्मसगेहि "-त्या
मन्वयार्थ-कम्मसगेहिं-कर्मसगै ज्ञानावरणीय माहि ४ाना सोयी समूदा-समूढा तत्वातत्वना विवथी, विमनसा तभर दुक्खिया-दुखिता विविध मन सेवा राम, माहिथी समारत म. बहु वेयणा-बहु वेदना भ, तीव्र, तीव्रतर, पीडामाथी युत ॥ पाणिणो-प्राणिन ससारी प्रा! अमाणुसासु जोणीसु-अमानुपीपु योनिपु सन्द्रिय, मेन्द्रिय, त्राधान्द्रय, थार धन्द्रिय, अने भनुन भिन्न पाय धन्द्रिय भा योनीमामा विणिहम्मति-विनिहन्यन्ते ફરી ફરી જન્મ મરણ જનીત દુ ખ પામે છે એટલા માટે મનુષ્યમવ દુર્લભ કહ્યો છે