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उत्तराध्ययनस्में कश्चिदाक्रोशमात्रेणाऽतुष्टो दुष्ट सयतस्य वधमपि कुर्यादतो वधपरीपहमाहमलम-हओ ने सजले भिक्खू, मणंपि न पओसए ।
तितिक्खं परंम नच्चा, भिखुधम्म विचितए ॥२६॥ छाया-हतो न सज्वलेद् भिक्षुः मनोऽपि न प्रद्वेपयेत् ।
तितिक्षा परमा ज्ञात्वा, भिसुधर्म विचिन्तयेत् ॥ २६॥ टीका-'हो' इत्यादि।
भिक्षु-मुनिः, हतः केनापि दुष्टेन मुष्टियष्ट्यादिना ताडितः सन्, न सज्वलेर न फुध्येत्, तथा मनोऽपि न प्रद्वैपयेत् द्वेपयुक्त न कुर्यात्, तितिक्षा-शान्ति,
कोई दुष्ट पुरुप आक्रोशमात्र से सतुष्ट नहीं होकर मुनि का वध भी करने लगता है इसलिये अव तेरहवें वधपरीवह को कहते हैं-'हओ न सजले-इत्यादि. ___ अन्वयार्थ-(भिक्खू-भिक्षुः) मुनि (हओ-हतः) किसी भी दुष्टके द्वारा यष्टि मुष्टि आदि से ताडित हो जाय तो भी (न सजले-न मज्वलेत) क्रोध से तपायमान नही होवे । तया (मणपि न पओसए-मनोऽपिन प्रदेषयेत्) मन को भी पित नहीं करे, किन्तु (तितिक्ख-तितिक्षाम्) उत्तम क्षमा को (परम-परमाम् ) दशविध धर्मो मे सर्वोत्कृष्ट (नच्चाज्ञात्वा) जानकर (भिक्खू-भिक्षु.) वह साधु (धम्म विचिंतए-धर्म विचिन्तयेत् ) उत्तम क्षमादिरूप साधु के कर्तव्य का, अथवा अपने
आत्मस्वरूप का विचार करे कि-क्षमामूलक ही धर्म है । यह जो मुझे निमित्त बना कर के कर्मों का उपचय कर रहा है उस मे मेरा ही
કેઈ દુધ માણસ આક્રોશ માત્રથી સતેષ ન પામવાથી મુનિને વધુ પણ ४२ वा छे से मटेडतरमा परीषन छ 'हओन सजलें-इत्यादि
शपयार्थ-भिक्खू-भिक्षु मुनि हओ-हत ६ प ट द्वारा asst जापायी तस्ति 25 लय त न सजले-न सज्वलेत् धथी तपी न जय मणपि न पओसए -मनोऽपि न प्रद्वेषयेत् मनन ५६इषित न रे ५५ तितिक्ख-तितिक्षा उत्तम क्षमान परम परमा शविध धर्नामा सस्टि मच्चा--ज्ञात्वा Meीन भिक्खू-भिक्षु त साधु धम्म विधितए-धर्म विचिन्तयेत् કે ઉત્તમ ક્ષમાહિરૂપ સાધુના કર્તવ્યને તથા પોતાના આત્મસ્વરુપનો વિચાર કરે કે, ક્ષમા એ જ ધર્મ છે આજે મને નિમિત બનાવીને કમેને ઉપચય કરી