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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १४ अरतिपरीपहजयः ३६९ ग्रामानुग्रामस्तम्। नगरायुपलक्षणमेतत् , नगरादिकं चेत्यर्थः। रीयमाण-विहरमाणम् , अकिञ्चन-निष्परिग्रहम् , अनगार-मुनिम् अरतिः-सयमविपयिकाऽधृतिः मोहनीयकर्मोदयजनिता सयमारुचिरूपाऽऽत्मपरिणतिः अनुमरिशे-प्रविष्टा भवेत्मुनेमनसि प्राप्ता भवेत् , तम्-अरतिरूप परीपह तितिक्षेत अरतिरूपस्य मनः परिणामस्य कटुकफल चिकणकर्मवन्धन चतुर्गतिकससारपरिभ्रमण च विज्ञाय मनसस्तनिराकरणेन सहेत ।। अचेलक के शीत आदि द्वारा सताये जाने पर अरति भी हो सकती है इसलिये सातवें अरतिपरीपह को सहने के लिये सूत्रकार कहते हैं। 'गामाणुगाम' इत्यादि अन्वयार्थ-(गामाणुगाम रीयत-ग्रामानुग्रामरीयमाणम्) एक गाव से दूसरे गाव तथा उपलक्षण से एक नगर से दूसरे नगर विहार करते हुए तथा (अकिंचण-अकिञ्चनम्) अकिञ्चन-परिग्रहरहित ऐसे (अणगारअनगारम्) मुनि को (अरई अणुप्पवेसेज्जा-अरतिः अनुप्रविशेत् ) यदि अरति-सयम मे अरुचि अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाली जो सयमअरुचिरूप आत्मपरिणति, तथा सयम में अधृति जाग्रत हो जावे तो मुनि का कर्तव्य है कि वह (त परीपह तितिक्खे-त परीपद तितिक्षेत) उस परीपद को शाति के साथ सहन करे। “अरतिरूप इस मानसिक परिणति का फल चिकणकर्मवन्धरूप है और उससे जीव का અલકમનીને શીતઆદિ સતાવે ત્યારે અરતિ પણ થવાને સભવ છે તેથી ૭મા અરતિપરીષહને સહન કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે 'गामाणुगाम ' त्यादि मन्वयार्थ-गामाणुगाम रीयत-ग्रामानुग्राम रीयमाणम् गमयी मी गाभ तथा SBथी मे नगरथी मीनार विडार ४२ता अकिंचण-अकिञ्चनम् तथा मयिन-परियड २डित वा अणगार-अनगारम् भुनिन हाय अर्ह अणप्पवेसेज्जा-अरति अनुप्रविशेत् भति-सयममा म३थि अर्थात् माडनीय माना ઉદયથી થનારી જે સયમ અરૂચિ રૂ૫ આત્મપરિણતિ-તથા સયમમાં અતિ, જાગૃતિ प ता मुनिनु तव्य छ है, ते भुनी त परिसह तितिक्खे-त परीषह तितिक्षेत એ પરિષહને શાન્તીની સાથે સહન કરે “અરતિ રૂપ આ માનસિક પરિણતિન કુળ ચિકણું કર્મબધ રૂપ છે અને તેનાથી જીવનુ ચતુતિરૂપે સંસારમાં उ०४७
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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