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उसराध्ययनस्त्रे छाया-परीपहाणा मविभक्तिः, काश्यपेन मवेदिता ।
ता युप्माकम् उदाहरिप्यामि, जानुपूर्व्या शृणुत मे ॥ १ ॥ टीका-परीसहाण' इत्यादि ।
हे शिष्या ! परीपहाणा पविभक्तिः पृथरु पृथा विभाग, काश्यपेन-कश्य गोत्रोत्पन्नेन, श्रीमहावीरार्धमानस्वामिना प्रवेदिता, प्रार्पण पोरिता द्वादशपरिपदि, ता=परीपहाणा मरिभक्तिम् , जानुपूर्त्या अनुक्रमेण, यथानिर्दिष्टक्रमेण युष्माकम् उदाहरिप्यामि-कथयिष्यामि, मेम्मद, मम सकाशात् , शृणुत-सावधानतया श्रवणगोचरी कुरुत । 'सुणेह'-जन बहुवचनमादरार्थम् ।। गा. १॥ इह सर्वेषु परीपहेपु सुधापरीपड एक दुस्सहः । उक्तञ्च
पथसमा नत्यि जरा, दारिदसमो य परिभयो नत्थि ।
मरणसम नत्यि भय, खुदासमा वेयणा नयि ॥ १॥ छाया-पथिसमा नास्ति जरा, दारिद्रव्यसमच परिभगो नास्ति ।
मरणसम नास्ति भय, क्षुधासमा वेदना नास्ति ॥ १ ॥ इति इस प्रकार सुधर्मा स्वामी परीपहों के नामोका कथन करके अब उनका प्रत्येक का स्वरूप प्रकट करते हैं-परीसहाण-इत्यादि.
हे शिष्य ! (परीसहाण पविभत्ती-परीपहाणा प्रविभक्ति) परीषहाँ का यह पृथक २ विभाग (कासवेण-काश्यपेन) काश्यगोत्रोत्पन्न श्री वर्धमान स्वामीने (पवेइया-प्रवेदिता) समवसरण में प्रकट किया है । मैं (त मे उदाहरिस्सामि-ता युष्माक उदाहरिष्यामि) उस परीषही के पृथक् २ विभाग को तुम को कहगा (मे आणुपुचि सुणे-मे आनु पूया शणुत) अतः मेरे से उम को यथा क्रम तुम सुनो। इन समस्त परीषहो में क्षुधापरीषद ही दुस्सह है। कहा भी है
આ પ્રકારે સુધર્મા સ્વામી પરીપતેના નામનું કથન કરીને હવે તે हरेनु स्१३५ प्रगट रे छ-परीसहाण त्याहि
3 शिष्य । 'परिसहाण पविभची-परीपहाणा प्रविभक्ति परिवार प्रय प्रय विमा कासवेण पवेइया-काश्यपेन प्रवेदिता श्ययात्रोत्पन्न श्री महावीर मान स्थानीय समवसरमा प्रगट ४२ छ त भे उदाहारिस्सामिता युष्माक उदाहरिष्यामि हुसे परीषडाना प्रथ६ प्रथ५ विभाग तमान ४ीश मे आणुपुब्धि सुणेह- मे आनुपूर्व्या श्रृणुत माथी यथाभ ते२ साल। भाराथा આ સમરત પરિષહમા સુધા પરિષહ દુષ્કર છે કહ્યું છે કે