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प्रियदर्शिनी टीका गा ४१-१२ शिष्य कर्तव्योपदेश
૨૧ रस्माभिर्भनन्तः शिग्यश्च पीडनीयाः ' इति निषेय भक्त प्रत्यारयाय स प्राणरहितो जात । एव भुद्रमविशिष्यवत् साधुवुद्धोपचाती न भवेत् ।। ४० ॥ ___ आचार्य कुपिते शिप्यफर्तव्यमाह-- मलमू-आयरिय कुविय नच्चा, पत्तिएंण पसायए।
विज्झविज पजलीउडो, वएंज्ज न पुंणुत्ति यं ॥४१॥ छाया-आचार्य कुपित ज्ञाला, मीविकेन प्रसादयेत् ।
निध्यापयेत् माललिपुट., वदेत न पुनरिति च ॥ ४१ ।। टोका-'आयरिय इत्यादि ।
शिष्यः केनचिव सापरापेन आचार्य कुपितम् अपरितुष्ट ज्ञात्वा प्रीतिकनप्रीतिरेर प्रीतिक तेन-प्रीतिजनफेन विनयभावेन यद्वा-'प्रतीतिकेन' इतिच्छाया, प्रतीतिफेन-निवासजनकेन पाम्येन त प्रसादयेत् प्रसन्न कुर्यात् । 'प्रीतिकेन' कहा तक कष्ट दिया जाय, अत. यही सर्वसुदर मार्ग है कि सलेखना धारण करलो जाय। ऐसा कह कर उन्होंने भक्तप्रत्यारयान कर दिया
और कुछ समय के बाद वे समाधिमरण को प्राप्त कर अपना कल्याण किया। इस कथा से शिष्य को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि क्षुद्रमति शिप्य की तरह वह गुरु महाराज का प्राणप्रहारी न बने ॥४०॥
आचार्य महाराज के कुपित होने पर शिष्य का क्या कर्तव्य है सो कहते हैं-'आयरिय' इत्यादि
अन्वयार्थ-शिष्य (कुविय आयरिय नचा-कुपित आचार्य ज्ञात्वा। जर यह समझे कि आचार्य महाराज कुपित हैं उस समय वह (पत्तिएण पसायरा-प्रीतिकेन प्रसादयेत्) प्रीतिजनक-विनयभाव से अथवा સર્વ સુદર માર્ગ છે કે, સલેખણ ધારણ કરી દઉ એવું કહીને તેઓએ ભક્તપ્રત્યાખ્યાન કરી લીધું અને થોડા સમય બાદ સમાધી મરણને પ્રાપ્ત કરી પિતાનું કલ્યાણ કર્યું આ કથાથી શિષ્ય એ શિક્ષા લેવી જોઈએ કે, સુમતિ શિષ્યની भात पोताना गुरु महासना प्राय उरना२ न. मन ॥४०॥
આચાર્ય મહારાજના કોધિત થવાથી શિષ્યનું શું કર્તવ્ય છે તે કહેવામાં मार-आयरियन्त्याल _____ मन्वया4-शिष्य कुविय आयरिय नच्चा-कुपित आचार्य ज्ञात्वा न्यारे से सभर माया मारापितत समय त पत्तिएण पसायए-ग्रीविकेन __ प्रसादयेत् प्रितिन-विनय भायी मया विश्वास न पायची प्रसन्न