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प्रियदर्शिनी टीका गा २१ आसनविनय
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प्रेक्षितु शीलमस्येति तथा, जसौ गुरुणा प्रसादः - यदन्येषा शिष्याणा सद्भावेऽपि गुरवो मामाज्ञापयन्तीति विचारशील इत्यर्थ' । यद्वा-केन विधिना गुरुः प्रसन्नो भवेदिति भावनाभावितः गुरुप्रसादलाभार्थी इति यावत् । उक्तच
जो नत्थि भग्गसाली, नो सो गुरुदेसण इह लभए । धारामियस्स निवड, जगेणो पुन्नहीणाण ॥ १ ॥ छाया - यो नास्ति भाग्यशाली, नासौ गुरुदेशनामिद्दालभते । धाराऽमृतस्य निपतति, अने नो पुण्यहीनानाम् ॥ १ ॥
तथा नियागार्थी=मोक्षार्थी शिष्यः गुरु-धर्माचार्यादिक, सदा उपतिष्ठेत् = मत्थपण दामि इत्यादि वदन् सविनय गुरुसमीपे तिष्ठेदित्यर्थः ॥ २० ॥
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जावे, अथवा किसी कार्य करने के लिये कहा जावे- तब वह ( कयाइविंकदाचिदपि ) कभी भी (तृसणीओ न तूष्णीक न भवेत् ) उत्तर दिये बिना नही रहे चाहे बीमार भी होवे तो भी चुपचाप न रहे। ( पसायपेही - प्रसादमेक्षी ) यह समझे कि मेरा बड़ा भारी सौभाग्य का उदय है, जो अन्य शिष्यो के होने पर भी गुरु महाराज मुझे ही आज्ञाप्रदानकर रहे हैं । अथवा यह विचार करे कि गुरु महाराज जिस उपाय से मेरे पर प्रसन्न हों वही उपाय मुझे करते रहना चाहिये । इस प्रकार की भावना से भावित होकर गुरु के प्रसाद का लाभार्थी बने । क्यों कि कहा भी है- जिस प्रकार हीन पुण्यचालों के शरीर ऊपर अमृत रस की धारा नहीं पडती है - उसी प्रकार जो शिष्य भाग्यशाली नही होता है वह गुरु की देशना का पात्र नही होता है । इसी तरह ( नियागड्डी ) मोक्षामिलापी शिष्य का कर्तव्य है कि वह ( मया गुरु उवचिट्ठे- सदा गुरु
જ્યારે તેને ખેલાવવામા આવે અથવા ફાઈ કામ માટે કહેવામા भावे त्यारे कयाइविं- कदाचिदपि ते उहि प तुसणीओ न-तुष्णीक न भवेत् उत्तर આપ્યા વગર ન રહે. ચાહે તે બીમાર હાય તે પણ ચુપચાપ ન રહે पसायही प्रसादप्रेक्षी ते थोवु समने है, भारा सौभाग्यने। भोटो उध्य છે કે, ખીજા શિષ્યેા હૈાવા છતા પણ ગુરુ મહારાજ મને જ આજ્ઞા આપે છે અથવા એવા વિચાર કરે કે ગુરુ મહારાજ જે ઉપાયથી મારા ઉપર પ્રસન્ન રહે તેવા જ ઉપાય મારે કરતા રહેવુ જોઈએ આ પ્રકારની ભાવનાથી ભાવિક બનીને ગુરુના પ્રસાદના લાભાર્થી ખને કેમકે, કહ્યુ છે કે—જે પ્રકારે દુર્ભાગીના શરીર ઉપર અમૃતરસની ધાર પડતી નથી, એ પ્રકારથી જે શિષ્ય ભાગ્યશાળી नथी होतो ते गुरुनी देशनाने पात्र मनतो नयी या रीते नियागट्टी- मोक्षामि साथी शिष्यनु उर्तव्य ते सया गुरु उवचिट्ठे- सदा गुरु उपतिष्ठेत् भेशा