________________
उत्तराध्ययनसूने स्नियः कथमेपणीय इत्याहमूल्म्..-निसते सियाऽमुहरी घुाण अतिएँ सयां । अर्जुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरहाणि 3 वज्जएं ॥८॥
छायानिशान्तः स्यात् अमुखारिः बुद्धानाम् अन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत निरानि तु जयेत् ॥ ८॥
टीका'निसते इत्यादि'-निशान्तानितरा शान्तः-उपशमयुक्तः-अन्तः क्रोधपरिवर्जनेन वहिश्च सौम्याकारेण प्रशान्तः स्याद्-भवेद , अमुसारि अविरुद्धभापी मियभापी सन् बुद्धानाम् आचार्याणाम् , अन्तिके समीपे, सदा-सकालम् अर्थविभूपित बना शिष्य भी शील से कुल, गण ण्व गच्छ को प्रमुदित करता हुआ लोक मे चिन्तामणि रत्न के समान माना जाता है कल्पवृक्षके समान सेवित किया जाता है, निधिके समान आदरीणय होता रहता है और सुधा (अमृत) के समान पूजा जाता है ॥७॥
विनय पालन कैसे करना चाहिये इसे सूत्रकार इस निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट करते है-निसते ' इत्यादि ।
अन्वयार्थ (निसते-निशान्त) जो उपशम भाव से युक्त हैभीतर में जिसके क्रोध का उद्रेक नही होता है-तथा बाहिर से जिसका सदा सौम्य आकार बना रहता है ऐसा शिष्य (अमुखारि) अविरुद्धभाषी-प्रियभाषी-होता हुआ (बुद्धाण अतिए-बुद्धाना अन्तिके) आचार्यों શિષ્ય પણ શીલથી કુળ, ગણ એટલે ગચ્છને પ્રમુદિત કરીને લેકમા ચિન્તા મણું રત્ન સમાન માનવામાં આવે છે કલ્પવૃક્ષના સમાન સેવિત કરવામાં આવે છે નિધિની માફક આહત થતા રહે છે અને સુધાની (અમૃત) માફક પૂજાય છે છા
વિનય પાલન કેવી રીતે કરવું જોઈએ તેને સૂત્રકાર આ નિચે બતાવેલ ગાથાથી સ્પષ્ટ કરે છે નિત્તે ઈત્યાદિ
मन्वयार्थ (निसते-निशान्त ) 2 उपशम माथी युत छ-२ने અદર ક્રોધને ઉપદ્રવ થતો નથી તથા બાહરથી જેને સદા સૌમ્ય આકાર मन्या रहे छ मेवा शिष्य (अमुसारी) मविलापी-प्रियलाषी मनीने (बुद्धाण अतिए-बुद्धाना अन्तिके) मायार्थानी सभि५ ( सया-सदा) ।