SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - प्रियदर्शिनी टीका अ०१ गा ४ सदृष्टान्तमविनीतलक्षणम् तरा दधिक्षत्रवेदनामनुभूय स गर्भाद् गर्भ, जन्मतो जन्म, मरणाद् मरण, दुःखाद् दुःख, पुनः पुनश्चतुर्गतिदुःस प्राप्नुवन् दुर्लभवोधिता दीर्य ससारिता च माप्तवान् ॥३॥ विनीतस्य सदृष्टान्तमवस्थामाहमूलम्-जहां सुणी पूइकणी, निक्कसिज्जइ सवसो । एंव दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिन्जइ॥४॥ छायायथा शुनी पूतिकर्णी निष्कास्यते सर्वतः । एर दुःशील, प्रत्यनीकः मुखारिनि फास्यते ॥ ४ ॥ 'जहा०' इत्यादि-यथा-पूतिरुणी-पूती-दुर्गन्तवन्तो कणा यस्या. सा तथोक्ता, कर्णगतानेकविपमत्रणपरिपाकजनितदुस्सहदुर्गन्धपूयविकृतरक्तस्रावस्थितकृमिमतिकानिकरदशनोद्भूततीव्रतरवेदनाव्याकुलतया प्रतिक्षगमितस्ततो भ्रमन्तीत्यर्थ., शुनी-कुक्कुरी, सर्पशा सर्वपकरेण प्रतिस्थानात् निष्कास्यते-नि:सार्यते, और घोर नरक मे जाकर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हुआ। वहा उसने दश प्रकार की तीव्रतर क्षेत्रसवधी वेदना को पाया। वहा की स्थिति को समाप्त कर जब वह वहा से निकला तो भी इस के दु.खो का अन्त नहीं आया । एक गर्भ से दूसरे गर्भ मे पहुंचना और वहा के कष्टों को भोगना, फिर वहा से मर कर पुन, जन्म धारण करना और कप्टो को भोगना, इस प्रकार अनतससारी बने हुए इस क्षुद्रवुद्धि की आत्मा को योधिका लाभ दुर्लभ हो गया ॥ ३ ॥ अविनीत की अवस्था को दृष्टान्त द्वारा सत्रकार प्रदर्शित करते हैं'जहा सुणी०' इत्यादि। દસ પ્રકારની તીતર ક્ષેત્ર સબધી વેદનાઓ સહેવી પડી એ વિતિ ભોગવી એ જ્યારે ત્યાથી નિકળ્યા છતા પણ તેના દુખોનો અંત ન આવ્યો એક ગર્ભમાંથી બીજા ગામ જવું અને ત્યાના કષ્ટ ભેગવવા એક સ્થળેથી મરી બીજે સ્થળે ફરી જન્મ ધારણ કરવું અને કષ્ટો ભેગવવા આ પ્રકારે અનન્ત સંસારી બનેલ તે ક્ષુદ્રબુદ્ધિના આત્માને બેધિનો લાભ દુર્લભ બની ગયો विनीतनी अवस्थान टात द्वारा सूत्रा२ प्रशित ४२ --'जहा सुणी' त्यादि
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy