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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र०२ पुरुषाणामल्पबहुत्वनिरूपणम् ५४३ मुहूर्तम् । अकर्मभूमौ हि मनुष्या नपुंसका समूच्छिमा एव भवन्ति न गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, युगलधर्मणां नपुंसकत्वाभावात् । समूर्च्छिमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तायुष एव म्रियन्ते, जघन्यान्तर्मुहूर्तापेक्षया, उत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त्त बृहत्तरं भवतीति विशेष: 'साहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं' सहरणं प्रतीत्य कर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकः सहरणेनाऽकर्मभूमौ नीतस्तमाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् 'उक्कोसेणं देसूणा पुन्वकोडी' उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः स्थितिर्भवतीति सहरणादूर्ध्वमामरणान्तं तत्रावस्थानसभवात् ॥ ' एवं जाव अंतरदीवगाणं' एवं सामान्यतोऽकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकव देव हैववत हैरण्यवताकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य हरिवर्षक भूमि में मनुष्य नपुंसक समूच्छिम ही होते है गर्भज नहीं होते है । जो अकर्मभूमिक मनुष्य गर्भज होते है वे नपुंसक नहीं हुआ करते है क्योंकि युगलधर्मियों में नपुंसकता का अभाव होता है संमूर्च्छिम मनुष्य नपुंसक जघन्य और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त की ही आव होते है । तदनन्तर मरण धर्म को प्राप्त कर लेते है यहां जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त में यह विशेष है कि जघन्य के अन्तर्मुहूर्त्त काल से उत्कृष्ट का जो अन्तर्मुहूर्त्त बृहत्तर होता है । “संहरणं पडुच्च जहेन्नेनं अंतोमुहुत्तं' सहरण की अपेक्षा अर्थात् कर्मभूक मनुष्य नपुंसक सहरण से अकर्मभूमि में ले जाया गया हो उसकी अपेक्षा अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति वाले होते है और 'उक्कोसेणं देणा पुत्रकोडी' उत्कृष्ट से देशोन एक पूर्व कोटि की स्थिति वाले होते है । " एवं जाव अंतरदीव - गाणं" सामान्य से जैसी स्थिति अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की कही है वैसी ही स्थिति जन्म और संहरण की अपेक्षा हैमवत, हैरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष, देवकुरू एवं उत्तरकुरु इन સ્થિતિ પણ એક અંતર્મુહૂતની છે અકમ ભૂમિમાં મનુષ્ય નપુસકે સંમૂ॰િમ જ હાય છે તે નપુંસક હોતા નથી કેમ કે-યુગલધમી યામાં નપુ સકપણાના અભાવ હાય છે. સમૂ સ્પ્રિંમ મનુષ્ય નપુંસક જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અતની આયુષ્યવાળા જ હાય છે. તે પછી મરણુધ તે પ્રાપ્ત કરીલે છે અહિયાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અન્તર્મુહૂત'માં એ વિશેષ પણ છે કે–જઘન્યના અ’તમુહૂત કાળથી ઉત્કૃષ્ટને જે અંતર્મુહૂતકાળ છે, તે વધારે મોટો એટલે , हत्तर होय छे "संहरणं पडुच्च जहणणे अंतोमुहुत्तं" स हरगुनी अपेक्षाथी अर्थात् उर्भ - 1 ભૂમિના મનુષ્ય નપુ ંસકો સહરણથી અક ભૂમિમા લઈ જવામાં આવેલ હાય તે અપેક્ષાથી અકર્મ ભૂમિના મનુષ્ય નપુંસકે। જઘન્યથી એક અતર્મુહૂતની સ્થિતિવાળા હોય છે અને "उक्कोसेणं देणा पुव्वकोडी” उत्सृष्टथी हेशोन मेड पूर्व अटिनी स्थितिवाणा होय छे, “एवं जावभ तरदीवगाणं" सामान्यपणाथी सम्भूमिना मनुष्य नपुंसोनी ने अभागोनी સ્થિતિ કહેલી છે, એજ પ્રમાણેાની સ્થિતિ જન્મ અને સ હરણની અપેક્ષાથી હૈમવત હૈરણ્યવત
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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