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________________ ર૦ जीवामिगसूत्रे नं भवति भावना तु कर्मभूमिकमनुष्य स्त्रिया इव कर्तव्येति । 'पुव्वविदेह अवरविदेहित्यीणं स्वतं पडुच्च जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं पुन्वकोडिपुहुत्त" पूर्वविदेहापर विदेहस्त्रीणां क्षेत्र प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्वमवस्थानं भवतीति 'जम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण देखणा पुन्वकोडी' धर्मचरणं प्रतीत्य आश्रित्य जघन्येनैकं समयमुत्कर्पेण देशोना पूर्वकोटिः, एतावत्कालपर्यन्तमवस्थानं स्त्रीरूपेण भवतीति ॥ सामान्यतो विशेषतश्च कर्मभूमिकमनुष्य स्त्री वक्तव्यतामभिधाय साम्प्रतमकर्मभूमि मनुष्य स्त्रीवक्तव्यतां चिकीर्षुः प्रथमतः समान्येन तावदाह - 'अक्रम्म भूमिग' इत्यादि, 'अक्रम्म भूमिगमस्सित्थीणं भंते' अकर्मभूमिकमनुष्यस्त्री स्खलु भदन्त । 'अकम्मभूमिग मणुस्सित्थित्ति काळओ केवच्चिरं होई' अकर्मभूमिकमनुष्य स्त्रीइत्येव रूपेण कालतः कियच्चिरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि का है इसका कारण कर्मभूमिज मनुष्य त्री के जैसा समझ लेना चाहिये “पुब्वविदेहअवरविदेहित्थीणं खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं" पूर्वविदेह और अपर विदेह की मनुष्य स्त्रियों का क्षेत्र की अपेक्षा करके जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक अवस्थानकाल होता है और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि पृथक्त्व तक अवस्थान रहता है "धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देणा पुव्वकोडी" चारित्र धर्म की अपेक्षा करके जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से देशोन पूर्व कोटि तक स्थान रहता है, इस प्रकार सामान्य और विशेष से कर्म भूमिक मनुष्य स्त्री के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करके अब सूत्रकार सामान्य रूप से ध्मकर्म भूमिक मनुष्य स्त्री को वक्तव्यता का कथन करते हैं — इसमें गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है- " अकम्मभूमिग मणुस्सित्यीणं भंते!” अकम्मभूमिगमणुस्सित्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ " हे भदन्त । काल की अपेक्षा से अकर्म - मेटिनु छे. तेनुं शरयु उर्भ भूमि मनुष्यखीना उथन प्रभाषेनु सभक सेवुं “पुग्वविदेह अवरविदेद्दित्थीणं खेत्त पदुच्च जहणणेणं अंतोमुहुत्त उनकोसेणं पुव्वकोडी पुहुत, पूर्व વિદેહ અને અપરવિદેહના સ્ત્રિયાનુ અવસ્થાન ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી જઘન્યથી એક અતમ ત सुधीनु होय छे भने उत्कृष्टथी पूर्व टिपृथत्व सुधीनु होय छे " धम्मचरणं पहुच अणेणं पक्कं समयं उक्कोसेण देखणा पुव्वकोडी” यारित्र धर्मांनी अपेक्षाथी कान्यथी એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી દેશેશન પૂર્વ કાટિ સુધીનુ' અવસ્થાન રહે છે. આ પ્રમાણે સામાન્ય અને વિશેષ પ્રકારથી ક ભૂમિની મનુષ્ય સ્ત્રીના સબંધમાં કથન કરીને હવે સૂત્રકાર સામાન્યપણાથી અકમ ભૂમિક મનુષ્યસ્રીના સબધમાં કથન કરે के.—आभां गौतम स्वामी प्रभुने मेनुं पूछयु छे ! - "अकम्मभूमिग मणुस्सिरथीनं भंते ! अम्मभूमिगमणुस्सित्थिन्ति कालओ केर्याच्चरं होइ' हे लगवन् । अजनी अपेक्षाभी
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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