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________________ ३९० जीयाभिगमसूत्रे रणं चापि संभवति, तत्कथं देशोना पूर्वकोटि रिति कथ्यते इति चेत् अत्रोभ्यते - कर्मभूमिकाल विवक्षयैतत् कथनं ज्ञातव्यम्, तस्य च कर्मभूमिकालस्यैतावन्मात्रत्वात् इति ॥ 'हेमव्य एरण्णवए जम्मणं पडुच्च' हैमवतैरण्यवता कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणां जन्म प्रतीत्य जन्माश्रयणेन 'जहन्नेणं देणं पलिओत्रमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं' नघन्येन देशोनं पल्योपम ं पल्योपमस्यासंख्येयभागेनोनम् 'उक्कोसेणं पळिओवमं' उत्कर्पतः परिपूर्ण पस्योपममिति 'संहरणं पटुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं देणा पृञ्चकोडी' संहरणं प्रतोत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः स्थितिरासां भवति, भावना पूर्ववदिति 'हरिवासरम्मयवास अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते' हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमिकमनुष्य तब तीन पल्योपम तक की स्थिति भी स्त्रियों की हो जाती है, और इस स्थिति में उनका संहरण भी हो सकता है, तो फिर संहरणकी अपेक्षा देशोन पूर्व कोटिस्थिति इनकी कैसे कही गई है तो इसका उत्तर ऐसा है कि ऐसी लम्बी जो यहां इनकी स्थिति कही गई है वह कर्मभूमि काल को विवक्षा से कही गई है, वह कर्मभूमि काल इतने प्रमाण का होता है । "हेमवय एरण्णवए जम्मणं पडुच्च" हैमवत ऐरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियों की भवस्थिति जन्मकी अपेक्षा 'जहन्नेणं देणं पलिभोवमं पलिओचमम्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं' जघन्य से पल्योपम के असख्यातवें भाग से हीन एक पल्योपम की है और " उक्को सेणं पलिओम', उत्कृष्ट से पूर्ण एक पल्योपम की है " सहरण पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण देखणा पुन्चकोडी " सहरण की अपेक्षा से इनको भवस्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्वकोटि की है । "हरिवासरम्म - શંકા—ભરત અને ઐરવત ક્ષેત્ર પણ કમભૂમિમા છે. અહિયાં જ્યારે એકાન્ત સુષમા વિગેરે કાઈ હાય છે, ત્યારે ત્રણ પત્યેાપમ સુધી સ ́હુણુ પણ થઇ શકે છે.-તે પછી સહરણની ખપેક્ષાએ દેશેાનપૂર્વ કાટિની સ્થિતિ તેની કેવીરીતે કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર એવા છે કે—એવી લાંખી સ્થિતિ ક ભૂમિકાળ એટલા પ્રમાણના હાય છે. તેથી અહિયાં કહેવામાં આવી છે, "हेमवय परणव जम्मण पदुच्च" भवत, भैरएयवत अमभूमि मनुष्य स्त्रियोनी लवस्थिति भन्भनी अपेक्षा श्री 'जहण्णेणं देणं पलिओवमं पलिओचमस्स असंखेज्जर भागेण ऊणगं,, ४धन्यथी पढ्योपभना असभ्यातमा लागया भोछी मे पहयेो यमनी है. अने ४ “उक्कोसेणं पलिओचमं,' उत्ष्टथी पूरा मे पहयेोयभनी ते "संहरणं पदुच्ख नहण्णेणं अंतो मुद्दत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी, सडुरसुनी अपेक्षाथी तेमनी लवस्थिति ४धन्यथी थे! अ ंतर्भुतनी छे, भने उत्सृष्टथी ४४४ सोछी पूर्व मेटिनी छे 'हरिवासरम्मग़वास अकम्भभूमिगमणुस्सित्थीण भंते! केवइयं कालं ठिई पण्ण " हे भगवन् !
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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