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________________ trafant टीका प्रति. १ स्थावरभावत्रसभावस्य भवस्थितिकालमानम् ३५३ (ज्जइ भागो) इति च्छायास्पष्टैव । योऽयं वनस्पतिकायस्य काय स्थितिकालः कथितः स सांव्यवहा1 रिकजीवानधिकृत्य ज्ञातव्यः, असांव्यवहारिकजीवानां तु कायस्थितिरनादिरेव ज्ञातव्या तथा— चोक्तम्– 'अत्थि अणंता जीवा जेहि न पत्तो तसाइ परिणामो । ते वि अणताणता निगोयवास अणुवसंति' ॥ सन्त्यनन्ता जीवा यैर्न प्राप्तस्त्रसादि परिणामः । तेप्यनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति ॥ इतिच्छाया सापि तेषां सांव्यवहारिकरा शिजीवानामनादिः कार्यस्थितिः केषाञ्चिदनादिरनन्ता ये जीवाः कदाचिदपि असांव्यवहारिकजीवराशौ न निपतिष्यन्ति । केषांचिदिय कायस्थितिः अनादिः सान्ता, ये जीवाः असांव्यवहारिकजीवराशे रुद्वृत्य सांव्यवहारिकजीवराशौ समागमिष्यन्तीति ॥ कायिकों का कायस्थिति काल कहा है वह सांव्यवहारिक जीवो को लेकर कहा गया है । ऐसा जानना चाहिये क्योंकि असांव्यवहारिक जीवों की तो कार्यस्थिति अनादिरूप ही होती है तथा चोक्तम् - "अस्थि अणता जीवा" इत्यादि । ऐसे भी अनन्तानन्तजीव अभीतक है कि जिन्होंने सादि पर्याय को प्राप्त नहीं किया है अर्थात् नित्यनिगोद से जो अभी तक व्यवहारराशि में नहीं आये हैं, ऐसे जीव ही यहां असांव्यवहारिक पदसे प्रकट किये गये है । इनकी अनादिरूप कायस्थिति है । पर यह अनादिरूप कायस्थिति कितनेक जीवों की ऐसी होती है कि जिनको अनादि अनन्तरूप होती है और कितनेकजीवों की ऐसी होती हैं कि जिनकी यह अनादि सान्तरूप होती है अनादि अनन्तरूप स्थिति जिनकी होती है ऐसे वे जीव तो कभी भी उस असांव्यवहारिक जीवराशि से निकलकर व्यावहारिक जीवराशि में नहीं आयेंगे । तथा जिनकी अनादि सान्तरूप स्थिति होती है वे नित्य निगोद से असांव्यवहारिक जीवराशि से निकलकर नियम से व्यावहारिक जीव राशि में आवेंगे । याणं भंते!" त्याहि आना अर्थ पडेला ह्या प्रमाणे छे. आ वनस्पति अयि लवानो જે કાયસ્થિતિને કાળ કહ્યો છે, તે સાંવ્યવહારિક જીવાને લઈને કહેલ છે. તેમ સમજવુ'. }भे-असांव्यवहारि भवानी अयस्थिति तो मनाहिश्य होय छे, तथाचोक्तम्“अस्थि अणता जीवा " छत्याहि सेवा या मन तानत व अत्यार सुधी छे, } नेमोथे ત્રસાહિ પર્યાય પ્રાસ કરેલ નથી અર્થાત નિત્ય નિગેાદથી જેએ અત્યાર સુધી વ્યવહાર રશિમાં આવ્યા નથી, એવા જીવાજ અસ’વ્યાવહારિક' પદથી પ્રગટ કર્યા છે. તેની કાયસ્થિતિ અનાદિરૂપ છે. પરંતુ આ અનાદિપ કાયસ્થિતિ કેટલાક જીવાની એવી હોય છે, કે જેની અનાદિ અનંતરૂપ હોય છે. અને કેટલાક જીવા એવા હોય છે, જેની આ કાયસ્થિતિ અનાદિ સાતરૂપ હાય છે. જેની સ્થિતિ અનાદિ અન તરૂપ હોય છે એવા તે જીવા કાઈ ૫૬ અસાંવ્યાવહારિક જીવરાશિમાંથી નીકળીને વ્યાવહકિ જીવરાશિમાં આવશે નહી' તથા જેની સ્થિતિ અનાદિ સાંતરૂપ હાય છે, તેએ નિત્ય નિગેાદથી અસાંવ્યાવહારિક જીવરાશિમાંથી નીકળીને નિયમથી વ્યવહારિક જીવરાશિમાં આવશે.
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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