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________________ २९६ जीवामिगमसूत्र wwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmwwwmmm तत्राह-'जाव' इत्यादि, जाव चउगइया चउआगहया' यावच्चतुर्गतिकाश्चतुरागतिका इति गत्यागतिद्वारपर्यन्तमिह ज्ञातव्यमिति । 'चउगइया चउआगइया' चतुर्गतिकाः स्थलचग्जीवा स्तथा चतुरागतिकाश्चेति नारकतिर्यड्मनुष्यदेवेपु गमनात् चतुर्गतिका', तथा नारकतिर्यमनुष्यदेवेभ्य उद्धृत्यात्रागमनात् चतुरागतिका भवन्तीति । 'परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता' प्रत्येकशरीरिणोऽसंख्याताः प्रज्ञप्ता'-कथिता इति । चतुप्पदप्रकरणमुपसंहरन्नाह-'से ते' इत्यादि, 'से तं चउप्पया' ते एते चतुष्पदा भेदप्रभेदाभ्यां निरूपिता इति । स्थलचराणां प्रथममेदं चतुष्पदं निरूपय द्वितीयभेदं परिमपं निरूपयितु प्रश्नयन् माह'से कि त' इत्यादि, से किं तं परिसप्पा' अथ के ते परिसर्पाः । इति प्रश्न , उत्तरयति-परि कियत्पर्यन्त जलचर प्रकरण यहाँ लेनाचाहिए, वही बात कहते हैं 'जाव' इत्यादि । 'जाव चउगइया चउआगइया' यहां तक-गत्यागतिद्वारपर्यन्त जलचर प्रकरण समझना चाहिए । 'चउगइया चउआगइया' ये स्थलचर जीव, नारक निर्यड् मनुष्य देव इन चारो लोकमें गमन करने के कारण चतुर्गतिक कहलाते हैं। तथा-नारक तिर्यड् मनुष्य देव इन चारों लोक से निकल कर यहां आते है इसलिए चतुरागतिक कहलाते हैं। 'परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता' ये स्थलचर प्रत्येक शरीरी जीव, असंख्यात कहेगये हैं। चतुष्पद प्रकरण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'से तं चउप्पया' ये चतुष्पद जीव, भेद प्रभेदों से निरूपित किए । अब सूत्रकार स्थलचरों के प्रथस भेद रूप चतुष्पद का निरूपण करके द्वितीय भेद जो परिसर्प है इसका निरूपण करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है "से कि तं परिसप्पा" हे भदन्त ! परिसी का लक्षण क्या है और कितने इनके भेद हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-"परिसप्पा એ જલચર પ્રકરણ કયાં સુધીનું અહિં ગ્રહણ કરવું જોઈએ? એ પ્રશ્ન ના ઉત્તરમાં सूत्रा२ 'जाव' त्यादि सूत्रनु ४थन ४२ छे ते मा प्रभारी छ. 'जाव चउगइया चउमागइया' मा स्थलय२०७३। ना२४, तियय, मनुष्य मन हे मा यातिभा सपा વાળા હોવાથી ચતુર્ગતિક કહેવાય છે તથા નારક તિર્યંચ મનુષ્ય અને દેવ આ ચાર ગતિ થી नाउमीन महीयां भाव पाणाडावाची 'यतुरागति' उपाय छ 'परित्ता असंखेज्जा पण्णરા’ આ સ્થલચર જીવો પ્રત્યેક શરીરી અસ ખ્યાત કહ્યા છે. હવે ચતુષ્પદ પ્રકરણ ને ઉપसहा२ ४२di सूत्रा२ ४९ छे से तं चउप्पया' मा शत लेह प्रथी यतु:५६ वार्नु નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર સ્થલચરોના પહેલા ભેદ રૂપ ચતુષ્પદ જીવેનું નિરૂપણ કરીને તેને બીજે ભેદ જે પરિસર્યું છે. તેનું નિરૂપણ કરે છે. તેમાં ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે है-“से कि तं परिसप्पा" मगवन् परिसचाना शु पक्षी छ १ मा प्रश्न उत्तरमा
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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