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________________ प्रमेयधोप्रतिका टीका प्रति० १ स्थलचरपरिसर्पसंमूच्छिम पं० ति० जीवनिरूपणम् २६५ लोके उपलभ्यन्ते ते सर्वे भुजपरिसर्पसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतया वेदितव्याः । 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' ते गोधानकुलादयो भुजपरिसर्पसंमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकाः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः द्विप्रकारकाः प्रज्ञता:- कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य' पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्चेति । भुजपरिसर्पसंमूछिमस्थलचरजीवानां भेदोपभेदानुपदर्य शरीरादिद्वारकलापं दर्शयितुमाह-'सरीरोगाहणा' इत्यादि, गोधानकुलादिभुजपरिसर्पसंमूछिमजीवानां 'सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइभार्ग' शरीरावगाहना जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभागप्रमाणा भवति 'उक्कोसेणं धणुपुहुत्त' उत्कर्षण गोधादिजीवानां शरीरावगाहना धनुःपृथक्त्वम् । द्विधनुषोरारभ्य नवधनुःप्रमाणा शरीरावगाहना भवतीति । 'ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं' स्थितिः--आयुण्यकालः जघन्येनान्तर्मुहर्तम् 'उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई' उत्कर्षेण स्थिति दिचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि भवन्तीति । है वे लोकभाषा से या देशविशेष से जाने जा सकते हैं। "जे यावन्ने तहप्पगारा' तथा-इनसे और भी जो जीव भिन्न हैं, पर वे नकुलादि जैसे हैं तो वे सब भी भुजपरिसर्प संमूच्छिम पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक रूप से ही जानना चाहिये । "ते समासओ दुविहा पन्नत्ता" ये जो गोधा नकुल आदि भुजपरिसर्प संमुर्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव हैं वे संक्षेप से दो प्रकार कहे गये हैं-"तं जहा" जैसे- "पज्जत्ता य अपज्जत्ता य" एक पर्याप्त और दूसरे अपर्याप्त इस प्रकार से भुजपरिसर्प संमूछिमस्थलचरजीवों के भेदों को और उपमेदों को दिखला कर अब सूत्रकार इनके शरीरादि द्वारों को प्रकट करने के लिये कहते हैं-"सरीरोगाहणा" इत्यादि इनकी शरीरावगाहना-जहन्नणं अंगुलासंखेज्जइभाग" जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और 'उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं' उत्कर्ष से धनुष पृथक्त्व है-दो धनुष से लेकर नौ धनुष तक की है । “ठिई जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई शम्हडिय भाषाथी अथवा देशविशेषथी सभ सेवा "जे यावन्ने तहप्पगारा" तथा આનાથી જે ભિન્નજીવો છે, પણ તે નકુલ-નળીયા જેવા હોય તો તે બધા જ ભુજ પરિસર્પ सभूमि पयन्द्रिय तिययानि पाथी । सभा. "ते समासओ दुविहा पण्णत्ता" જે આ ઘે, નેળીયા વિગેરે ભુજ પરિસર્પ સંમૂર્છાિમ પંચેન્દ્રિય તિયનિક જીવ છે, तमा सपथी ये मारना ४खसा छे. "तं जहा" ते २ मा प्रभारी समावा. "पज्जत्ता य अपज्जात्ता य" मे पर्याप्त मने भी अपर्याप्त माश भुपरिस समूરિષ્ઠમ સ્થલચર જીના ભેદો અને ઉપભેદે બતાવીને હવે સૂત્રકાર તેઓના શરીર વિગેરે द्वाशनु थन ४२i 3 छ -"सरीरोगाहणा" प्रत्याहितमान शशरनी माना । अगुलासखज्जहभाग" धन्यथा म मागणना असभ्यात माग प्रमाणुनी छ. भने "उफ्कोसेणं धणुपुहुत्तं" Bष्टथी धनुष पृथत्व छ. मेटले मे धनुषथी धन नव धनुष सुधीनी छे "ठिई जहाणेणं अतोमुहुत्तं, उनकोसेणं वायालीसं वाससहस्साई" भनी
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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