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________________ २६२ जीवाभिगमसूत्रे 'तं जहा' तद्यथा-'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य' पर्याप्ताश्चापर्याप्ता” चेति । 'तं चेव' तदेव, यद भेदादिकं यस्य कथितं तदतिरिक्त शरीरादिद्वारजातं तदेव जलचरजीवानां येन रूपेण शरीरादि द्वारजात कथितं तत्सर्वं तथैव-उरःपरिसर्पसमूछिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणामपि ज्ञातव्यम् । जलचरापेक्षया यद्वैलक्षण्य तदर्शयति-'णवरं' इत्यादिना, 'णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइभागं' नवर केवलम् उर.परिमर्पस्थलचगणा शरीगवगाहना जघन्येनाढ्गुलासख्येयभागम् 'उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं' उत्कर्पण शरीरावगाहना योजन्पृथक्त्वम । द्वियोजनादारभ्य नवयोजनप्रमाणा शरीरावगाहना भवतीति भाव । 'ठिई जहन्नेणं अंतो मुहत्तं' स्थिति-आयुष्काल एपामुर परिसाणा जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् 'उक्कोमेण तेवण्ण वाससहस्साई उत्कण त्रिपश्चाशदर्पमहखाणि 'सेसं जहा जलयराण' शेपं- शरीरावगाहना स्थिनिम्या मतिरिक्त शरीरादिच्यवनद्वारपर्यन्त द्वारजात यथा जलचराणा कथितं तथैव सर्व मिहापि वकय" पर्याप्त और अपर्याप्त, पर्याप्त गुण विशिष्ट अहि मादिक, पर्याप्त और अपर्याप्तता गुण विशिष्ट अहि आदिक अपर्याप्त कहे जाते है "तं चेव णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं" जिस रूप से जलचर जीवों के प्रकरण में शरीरादि द्वारों का कथन किया गया है, उसी रूप से उर.परिसर्प समूच्छिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियो के सम्बन्ध में भी वह सब शरीरादि द्वारकथन कर लेना चाहिये, परन्तु जलचर प्रकरण की अपेक्षा जो इसमें भिन्नता है वह ऐसी है कि उरःपरिसर्प स्थल चर जीवों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व-दो योजन से लेकर नौ योजन तक की होती है "ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं" स्थिति- आयुष्क कालइनका-उर परिसौ का-जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और 'उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साई" उत्कृष्ट से तेपन ५३ हजार वर्ष की है "सेसं जहा जलयराणं जाव चउग्ग इया दुआगडया” इस प्रकार शरीरावगाहना और स्थिति से अतिरिक्त च्यवनद्वार पर्यन्त के सब विगैरे पर्यात भने अपर्यात गुए विशिष्ट अडि विगरे अपक्ष ४२वाय छ "तं चेव णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण जोयणपुहुत्तं" य२. છોના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે શરીર વિગેરે દ્વારેનું કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણે ઉરઃ પરિસર્પ સંમૂર્ણિમ સ્થલચર પંચેન્દ્રિયો ના સંબંધમાં પણ તે શરીર વિગેરે સઘળા દ્વારા નું કથન સમજીલેવું પરંતુ જલચરોના પ્રકરણુકરતાં આમાં જે ભિન્નપણું છે, તે એવી રતનુ છે કે–ઉર પરિસર્ષ સ્થલચર જીના શરીરની અવગાહના જઘન્યથી એક આંગળના અસંખ્યાતમાભાગ પ્રમાણની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી જન પૃથફવ અર્થાત બે એજનથી લઈને नवयानसुधानी जय छ, “ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं" यानी स्थिति-मायुष्य १२ परिसपानी धन्यथा ये मतभुइतनी छ भने "उक्कोसेण तेवणं वाससहस्लाई" थी तपन ॥२ वर्षनी छे “सेर्स जहा जलयराणं जाव चउग्गइया दुआगइया"
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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