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________________ ૨૨૮ जीवाभिगमसूत्रे मनुष्येषु उत्पद्यन्ते । 'संखिज्जवासाउएस वि' संख्यातवर्षायुष्केष्वपि मनुष्येषु समुत्पद्यन्ते । 'असं खिज्जवासाउएस वि' असख्यातवर्षायुष्केष्वपि मनुष्येषु समुत्पद्यन्ते । यदि एतेषां मनुष्येषु भवति उपपातस्तदा केवलमकर्मभूमिकमनुष्यं परित्य सर्वमनुष्येष्वेवोपपातो भवतीति भावः ॥ देवे जाव वाणमंतरा' यदि जलचरसंमूच्छिमजावानां देवेत्पत्तिर्भवति तदा यावद् वानव्यन्तरदेवेष्वेवोत्पत्तिर्भवति यावत्पदमाहात्म्यात् भवनवासिषु वानव्यन्तरदेवेषूत्पत्तिर्भवतीति भावः । गत्यागतिद्वारे - चउगइया' चतुर्गतिका नारकतिर्यमनुष्यदेवेषु एते गन्तारो भवन्तीत्यतश्चतुर्गतिका इति कथ्यन्ते । 'दुआगइया यागतिकाः, निर्यड्मनुष्येभ्य एव केवलं जलचर आगमन भवति इत्यतो द्वागतिका इति कथ्यन्ते इति भाव | 'परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता' की असख्य'तवर्ष की आयु वाले हो इसी को कहते हैं- 'संखिज्जवासाउएस वि" सख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में भी ये उत्पन्न होते है । " असंखिज्जवासाउएसु वि" असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में भी ये उत्पन्न होते है । तात्पर्य कहने का यह है कि यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो केवल ये अकर्मभूमि के मनुष्यों को छोड़कर सर्व मनुष्यो में ही उत्पन्न होते है | "देवेसु जाव वाणमंतरा" यदि ये जलचर संमूर्च्छिम जीव देवो में तो ये भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं | और वानव्यन्तरो में उत्पन्न हो सकते हैं इनके वि ऊपर के देवों में नहीं जा सकते हैं क्योंकि वहां असंज्ञी आयु का अभाव है । गव्यागति द्वार में ये जळचर संमूच्छिमनीव 'चतुर्गतिकाः" चारो गतियो में जा सकते हैं । नरकगति में भी जा सकते है, तिर्यञ्च गति में भी जा सकते हैं, मनुष्यगति में भी जा सकते हैं और देव में भी जा सकते हैं । तथा - ' द्वयागतिका:" इनका आगमन तिर्यञ्च और मनुष्य इन दो में से ही आकर के उत्पन्न होते हैं । इसलिये ये द्वयागतिक कहलाते हैं । "परित्ता असंउपसु यि' सात वर्षांनी आयुष्यवाजा मनुष्योभां पण तेथे उत्पन्न थाय छे “मर्सखेज्जवास उपसु वि" असं ज्यात वर्षांनी आयुष्यवाणा भनुष्योभां या तेथे उत्पन्न थाय छे. I उत्पन्न होते हैं। । કહેવાનું તાત્પ એ છે કે—જો મનુષ્યેામાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેા કેવળ તે કમ लूमिना मनुष्योने छोडीने मात्र मनुष्योभां उत्पन्न थाय छे 'देवेसु जाव वाणमंतरा' ને તે જલચર સમૂચ્છિ`મ જીવ દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે તેએ ભવનવાસી દેવામાં અને વાનન્યતર દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે તે શિવાય ના બીજા દેવામાં થઈ શકતા નથી કેમ કે—ત્યાં અસી આયુને અભાવ છે गत्यागतिहारमा मा सयर स भूर्च्छिभ व चतुर्गतिकाः' यारे गतियोभां શકે છે અર્થાત્ તિર્યંચગતિમાં જઈ શકે છે, નરકગતિમાં પણ જઈ શકે છે, મનુષ્ય गतिमांशु श छे भने देवगतिमांशु शडे हे तथा तेथे 'द्वद्यागतिका' તેએનું આગમન તિર્યંચ અને મનુષ્ય એ ખેતિ માથીજ હાય છે, અર્થાત્ એ બે માંથી આવીને જલચર સ’મૂર્છિમ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી તેઓ યાગતિક કહેવાય છે.
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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