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________________ १५२ जोवाभिगमसूत्रे दिति ॥ 'अपरित्ता' अप्रत्येक्शरीरिणः अनन्तकायिका इत्यर्थः, अतएव 'अणंता' अनन्ताः प्रजप्ता. हे श्रमण ! हे आयुष्मन् 'अवसेसं जहा पुढवीकाइयाणं' अवशेष यथा पृथिवीकायिकानाम् , अवशेषम्-'नवरं' इत्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्तं शरीरादिद्वारजातं तत् सर्व यथा पृथिवीकायिकानां कथितं तथैव सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानामपि । 'से तं सहमवणस्सइकाइया' ते एते सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः भेदारादिभिश्च निरूपिता इति ॥ से कि तं वायरवणस्सइकाइया' अथ के ते बादग्वनस्पतिकायिकाः बादरवनस्पतिकायिका किं रूपका कियढ़े दावेति प्रश्नः, उत्तरयति 'वायरवणस्सइकाइया दुविहा पन्नत्ता' बादरवनस्पतिकायिकाः द्विविधा:-द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति । द्वैविध्यमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-पत्तेयसरीखायरवणस्सइकाइया य साधारणसरीरवायरवणम्सइद्वयागतिक-दो आगति वाले होते हैं "अपरित्ता' ये अप्रत्येक गरीरी है अतएव इन्हें अनन्त कहा गया है । हे श्रमण ! आयुष्मन् ' "अवसेसं जहा पुढवीकाइयाणं" जैसा सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवो के सम्बन्ध में कहा गया है । वैसा ही बाकी के सब शरीरादि द्वारों का कथन इन सूक्ष्म वनस्पतिकायिको के सम्बन्ध में जानना चाहिये । 'संत सुहमवणस्सइ काइया” इस प्रकार से इन सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के मेदो को लेकर और द्वारो को लेकर कथन किया गया है । "से किं तं वायरवणस्सइकाइया" हे भदन्त ! बादरवनस्पतिकायिकों के कितने भेद होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-"बायर वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता" हे गौतम । बाटर वनस्पतिकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं। "तं जहा" जैसे-"पत्तेय सरीरवायरवणस्सइकाइया य साहारणमरीवायर वणस्सइकाइया य" प्रत्येक शरीर बादर વનસ્પતિકયિક જીવ –અપ્રત્યેક શરીરી હોય છે. પ્રત્યેક શરીર હોતા નથી. અથતિ આ સૂક્ષ્મવનસ્પતિકાયિક જીવો અનંત કાયવાળા હોય છે તેથી જ તેઓને અનંત डसा छ ड श्रम ! मायुष्मन् ! “अवसेतं जहा पुढवीकाइयाणं" सूक्ष्म वीयि જીવોના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણે આ સૂક્ષ્મવનસ્પતિકાયિક जवानी साधना शरीर विगे३ सघका दारातु ४थन सभा. 'से तं सुहमवणस्सइकाझ्या" 20 प्रभारले २सूक्ष्म वनस्पतयि वाना हो सघी मन हारे। સંબધી કથન કર્યું છે, "से कि तं वायरवणस्सइकाइया" गौतम स्वाभी पूछे छ । सावन माह२ वनस्पति કાયિકોના કેટલા ભેદે કહ્યું છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે'बायरवणरलइकाइया दुविहा पण्णत्ता" 3 गौतम ! मा६२ वनस्पतियि वो मे अना ४ा छ "तं जहा" ते 21 अभाव छ --पत्तेयसरीरयायरवणस्सइकाइया य साहारण
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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