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________________ का धर्मको प्रवरवरशाल नञ्जिकोज्वलमणिकनकरत्नस्तूपिका-विटवजालाद्धं चन्द्रनिहकान्तार कनकालिचन्द्रशालिका-विभक्तिकलिते, तत्र सुश्लिाटानि-लेपद्रव्येण सुप्ठुनया संयोजितानि पट्=पट संख्यकानि काप्ठानि येषु (स्तम्भेषु) ने सुश्लिष्ट पट् काष्ठका, स्तम्भानां स्थूलतायै सुन्दरतायै दृढतायै च तत्र पट् काष्ठानि योज्यन्ते, तथा लष्ठा=मनोज्ञाः, मृष्टाः सुघृष्टत्वेन चिक्कणाः, संस्थिताः यथास्थानं सम्यक् स्थापिताः, विशिष्टाकारमन्तो वा स्तम्भाः, तेभ्यः उद्गताः बहिनिरसरन्त्यइव दृश्यमानाः प्रवर वरः उनमोत्तमा याः शालभञ्जिकाः क्रीडापुत्तलिकाः, तथा उज्वलानां चाकचिक्ययुक्तानां मणीनां चन्द्रकान्तप्रभृतीनां कनकस्य-सुवर्णस्य रत्नानां मरकतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादिनां याः स्तृपिका: उत्राकाराणि लघुशिवराणि 'छत्री' इति भापायाम्, तेषु ये विटङ्काः कपोतपालिका 'छज्जा' इति भापायाम्, तथा जालानि-सच्छिद्रा गवाक्षविशेपाः, अर्द्धचन्द्राणिः= अर्द्धचन्द्राकाराणि सोपानानि, नियुहकाणि द्वारवामदक्षिणभागेषु बहिनिर्गताः सुत्रणेटित-रत्न जटिततुरगमुखाद्याकारा भवनद्वारवहिर्भागा 'द्वारघोडला' यालिचदसालिया विभत्तिकलिए) मजबूती एवं स्थूलता लाने के लिये श्लेप द्रव्य द्वारा अच्छी तरह ६-६ काष्ठ के खंडों से युक्त किये हुए हैं तथा जो बडे मनोज्ञ है, घिसे हुए होने के कारण जिन पर अच्छी चिकनाई हैं यथा स्थान पर उचित रीति से जिन की रचना की गयी हैअथवा जो विशिष्ट आकार संपन्न हैं। इन स्तंभो के ऊपर जो उत्तमोत्तम पुत्तलिकाएँ उकेरी गई हैं वे ऐसी मालूम-पडती हैं कि मोनों वहा से वे बाहर ही निकल सी रही हैं। यहां जो छोटी२ छत्रिया बनी हुई है वे रजवलमणियों की सुवर्ण की एवं मरकत, वज्र, इन्द्रनील वैडूर्य आदि रत्नों की हैं। इसमें कपोत पालिकाएं एवं सच्छिद्र गवाक्ष विशेष भी बने हुए हैं। इसकी अर्द्धचन्द्राकार वाली सोपान पंक्ति है। निर्यहक-द्वार के वाम तथा दक्षिण भाग की ओर बाहर, निकले हुए इसमें द्वार घोडले વડે સારી રીતે છ છ કાષ્ઠ ખંડોથી સંયુકત કરેલ છે, તેમજ તે ખૂબ મનેખ છે, ઘસેલા હોવાથી તે સરસ સુંવાળા છે, યથા સ્થાને તેમની સારી રીતે રચના કરવામાં આવી છે, અને તે વિશેષ આકાર પ્રકારથી સંપન્ન છે. આ થાંભલાઓ ઉપર પૂતળીઓ એવી ઉત્તમોત્તમ રીતે કેરેલી છે કે જાણે તેઓ તેમાથી બહાર નીકળતી હોય. અહીં જે નાની છત્રીઓ છે, તે સ્વચ્છ મણિ, સુવર્ણ, મરકત, વા, ઈન્દ્રનીલ, વૈડૂર્ય વગેરે રત્નની છે. આમાં કપાત પાલિકાઓ તેમજ છિદ્રવાળા વિશેષ પ્રકારના ગવાક્ષે (गोमा) ५५ अनेसा'छ. मेना पाथिया सयन्द्रावात छ. निy७४
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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