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________________ ६५५ अगरवर्षिणी टीका अ० २ धन्यस्य विजयेन सह हडिबन्धनादिकम् कृतः, शरोरचिन्तार्थमेव तस्म संविभागः कृत इति भावः । ततःखलु मा भद्रा धन्येन सार्थवाहेन एवमुक्ता सती 'हट्ट जाव' हृष्टयावत् हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता हर्षवशविसहृदया आपनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थान 'कठाक ठे' कठा कण्ठि=कण्ठेन कण्ठं संमेल्येत्यर्थः ' अत्रयासेइ' आश्लिष्यति = आलिङ्गति, आदर सत्कारादिकं करोति क्षेमकुशलं = कुशलवार्ता पृच्छति च । कुशलमश्नमोपृच्छय 'व्हाया' स्नाता=कृतस्नाना 'जाव' यावत् ' कयवलिकम्मा' कृतवलिकर्मा=कृतं= सम्पादितं बलिकर्म = प्रियागमननिमित्त पशुपक्ष्यादिप्राणिभ्योऽन्नादिदानरूपं यया सा तथा, 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता' कृत कौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता कृत कौतुकं = दृष्टिदोपादिनिवारणार्थं मपीपुण्ड्रादिकं मङ्गलं = दुस्स्वनादिफलस्यागनिवृत्ति के भाव से उसे हमने उस चतुर्विध आहार में से विभक्त कर उसे हिस्सा दिया है (नए सा भागं सत्यवाणं एवं चुत्ता समाणी, हजार असणाओ ऋभुट्टे असुट्टित्ता कंठाकंठि अवयासेड, खेमकुसलं पुच्छ३) इसके बाद धन्य सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित और सतुष्ट हृदय होती हुई वह भद्रा सार्थवाही आसन से उठ कर बैठो, उठकर उसका उसने कंठसे आलिङ्गन किया और दुख मादिक क्षेमकुशलकी बात पूछी । (पुच्छित्ता व्हाया जात्र पायच्छित्ता विउलोड़ भोगाइ भुंजाणी fares) पूछकर फिर उसने स्नान किया याव प्रयचित्त किया । और त्रिपुल भोगोंको भोगते हुए वह अपना समय आनन्द से व्यतीत करने लगी। यहां " 59 जात्र पद से (कवलिकम्मा कयको उयमंगलपायच्छित्ता ) " इन पदों का सूचन किया गया है । इनका भाव यह है कि -- प्रिय आगमन के निमित्ति को लेकर उसने पशु पक्षी નિવૃત્ત થવા માટે તેને હું પોતાના ચાર જાતના આહારમાથી આહાર આપતા હતા (एग सा भद्दा or सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणी हजाब आमणाओ अ, अमुट्ठित्ता कंठाकंठि अवयासेड, खेमकुसल पुच्छङ) त्यार ખાદ ભદ્રા સાવાહી એ ધન્ય સાવાહની આ વાત સાંભળીને હૃતિ અને સંતુષ્ટ હૃદયા થઈને તેણે ધન્ય સાવાહનું આલિંગન કર્યાં અને તેની ક્ષેમકુશળની વાત पूछी. (पुच्छित्ता व्हाया जात्र पायाच्छिता विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरइ) पूछीने तेथे स्नान भने प्रायश्चित्त म्यु. तेभन धन्य सार्थवाहनी साथै વિપુલ ભાગ ભાગવતા તેણે પેાતાને વખત સુખેથી પસાર કરવા માડયા. અહીં 'जाव' चहथी ( 'कयबलिकम्मा कयको मंगलपयाच्छित्ता' ) आ पहानु સૂચન કરવામાં આવ્યું છે. એના અથ આ પ્રમાણે છે કે તેણે પ્રિય આગમનન
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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