SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७० ज्ञाताधर्मकथानमन्त्रे प्रेष्या इति वा, प्रेप्या:पयोजनविशेषे ये नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते ते, भिय गाइ वा' भृत्यका इति वा, भृत्या आवालपोपिता 'भाडल्लगा वा' भागिका इति वा, भागिका: भागवन्तः चतुर्थी शादिलाभेन कृष्यादिकारिणो वा यस्यां परिपदि साऽपिच खलु-बाह्या परिषद् धन्य सार्थवाहमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा 'पायवडिया' पादपतिता=पादसंलग्ना पादस्पर्शपूर्वकं नम्रीभूता 'खेमकुगलं' क्षेगकुशलम्, अनर्थानुत्पतिः क्षेमम्, अनर्थप्रतिघातः क्रुशल, तत् 'पुच्छह पृच्छति । अग्रे अपि--च तस्य तत्र 'अभंतरिया' आभ्यन्तरिका: गृहाभ्यन्तरवर्तिनो परिषद भवति-अस्ति, 'वधथा-तथाहि-मातेति वा पितेनि वा भ्रातर इति वा भगिन्य इति वा, साऽपि च खलु मातापित्रा वो भियगाडवा माइल्लगोह वा सावियणं धणं सत्यवाहं एजंतं पासड) दास-गृहदासी पुत्र-दास्य-जो काम पडने पर नगरान्तरों में भेजे जाते थे वे भृत्य-जो बालक अवस्थासे ही इस के घर पले पुसे थे--भागिकचौथाई हिस्सा लेकर जो कृष्यादि कर्म करते थे वह सब धन्यसार्थवाह को जब आते हुए देखा--तव (पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छंति) देखकर उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसकी क्षेम कुशल की बात पूछने लगा। अनर्थ की निवृत्तिका नाम क्षेम, और अनर्थ के प्रतिघात का नाम कुशल है (जा विय से तत्थ अन्भंतरिया परिसाभवइ-तं जहा-मायाइ वा पियाइ वा भायइ वा भगिनेइ वा सा विण धणं सत्यवाह एज्जमाणं पाम्नति) इसी तरह उस धन्य सार्थवाह की जो भीतरी सभा थी--जसे माता, पिता, भाई, और यहिने-सो इन माता पिता भाई और भगिनो रूप सभाने जब धन्य सार्थवाह को आते हुए देवा मदासाइ वा पेस्साइ वा भियगाड वा भाइल्लागाइ वा सा विय ण धण्ण मत्थवाहं एजंत पासइ) हास-घरना हसा पुत्र, हास्य-5 पर सतना કામ માટે બીજા નગરમાં મેકલવા માટેના નેકર, નૃત્ય-જે નાનપણથી તેને ઘેર પિષણ મેળવીને મોટા થયા હોવ, ભાગિકથા ભાગ લઈને ખેતી વગેરે કરતા હતા मा मधाये धन्यसार्थवाहने यावत नि(पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं કુત્તિ ) તેના પગે પડ્યા અને તેની કુશળ ક્ષેમ પૂછવા લાગ્યા અનર્થ દૂર થાય ते क्षम, भने अनर्थ ने प्रयल पूर्व माव! ते शत छ. (जावि य से तत्थ अभंतरिया भवड तं जहा-मायाइ वा पियाइ वा भायाइ वा भगिनेइ वा सा विणं धण्ण सत्यवाई एन्जमाणं पासंति) मा प्रभारी धन्य सा वाडना ઘરમાં રહેનારા કુટુંબના માણસે–માતા, પિતા, ભાઈ અને બહેનો-વગેરેએ ધન્ય
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy