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________________ ५२२ ज्ञाताधर्म कथा मंत्र नमस्थित्वा एकपक्ष्यमाणमकारेण अवादीत् इच्छामि खलु हे भदन्त ! युष्मा भिरभ्यनुज्ञातः मन् मासिकी भिक्षुपतिमां उपसंपद्य-अङ्गीकृत्य विहर्तुम् । भगवानाह-हे देवानुप्रिय ! यथासुखं यथाऽऽत्मकल्याणं भवेत् तथा कुरु मा प्रतिवन्धं कुरु-प्रमादं मा कुरु इत्यर्थः। अध मतिमाधिकारो वर्ण्यते-गच्छ धोरण समर्थः असम्पूर्ण दशपूर्वश्रुतधारी जघन्यतो नामपूर्वस्य तृतीयस्तधारी भवेत्, जिनकल्पियन परीपहोपमर्श परिपाठे समर्थः, नानाविधाभिग्रहादि युक्तः, धृतादिवनिताहागदिमोगी. महायो दृढसंहनन ररः, मावितात्मा यदि नमंसह) श्रमणभगवान महावीर को वंदना की नमस्कार किया (दित्ता नमंसित्ता एवं बयासी वंदना नमस्कार करके फिर इस प्रकार निवेदन किया-(इच्छामि णं भने) हे मदत ! मैं चाहत है कि (तुभेहिं अमणु-नाए समाणे) श्राप से आज्ञापित होता हुआ-(मासिय भिक्खुपडिम उयसपज्जि ताणं वितरित्तए) मासिकी भिक्षुप्रतिमा को धारण करूँ। (अहासुहं देवाणु पिया ! मा पउिबंधकरह) प्रभु ने कहा हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी आत्मा का कल्याण जैसे हो वैसा करो-दस में प्रमाद मत करो (भिक्षुप्रतिमा कमा प्रागी धारण कर सकता है। इसका खुलासा इस प्रकार है-जो गच्छ के धारण करने में मनर्थ हो असम्पूर्ण दापूर्वत का धारी हो अथवा जघन्य से नवमें पूर्व की तृतीय आवार बा को धारी ली जिन कल्पी की तरह पीपह उपमर्ग को सहन करने वला हो, नाना पकार के अभिग्रह आदि से युक्त हो इतादिपजिन आहार का भोगो हो, विशिष्ट शक्ति संपन्न हो. दृढ़ संह वान महावीरने पहुन गने नमः॥२ ४ा (वंदित्ता नमवित्ता एवं बयासी) पंदन गने ना ४२ ॥ प्रो विनतीजी (उच्छामिण भने ) महत २ या ३ (तमे हिं अमणुना नमाण) पनी आज्ञा भगवान ( मामि भिवायुपडिम उवदजिनाण वितरिना ) मसि ( प्रात मान या! ४३ (अमानुय देवाणुपिया ! म पडिग्ध कोड) पुणे ४ હે દેવાનું પ્રિય ' જે તમારા આત્માનું કલ્યાણ થાય તે પ્રમાણે કરો આ - કલ્યા ને કામ જરાપણ પ્રમાદ કરી ના ભિલુ પ્રતિમા તાણ ધા કરી શકે તેનું સ્પષ્ટીકરણ પ્રમાણે છે-જે એ ઘા કવ્વામાં સમર્થ છે સપૂર્ણ દશપૂર્વ કૃતધારી હોય અથવા જ, નવમા પૂર્વની અયાર વરતુને ધારણ नी E.न नाराय मन જનના અતિ વિ ' હિ દિય-ઘી વગેરે પર રહિત આહાર
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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