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________________ २४८ शाताधर्मकथासूत्रे सरस सुगन्धिपुष्पमालाभियन्ताम्, इति भावः, 'गणियावरणाडइज्जकलिय' गणिकावर नाटकीयकलितां, वेश्याप्रधाननृत्ययुक्ताम्, अणेगतालायराणुचरियं' अनेक तालाचरानुचरिताम्=अनेके ये तालाचरा:-तोलप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः, तैः अनुचरिता आसेविता या सा तथोक्तां, यत्र नृत्यादौ तालपूरकतया बहवः सहायकाः सन्तीति भावः, यहा-अनेके च ये तालाः उपलक्षणात् स्वरग्राममूछ. नादयः तेपामाचारः आचरणं तेनानुचरिता=युक्ता पमुइयपक्कीलियाभिरामं' प्रमुदितमक्रीडिताभिरामा प्रमोदयुक्ताः क्रीडायुक्ताजनाः, तेरभिरामो-मनोहराम्, 'जहारिहं' यथाही धर्मनीति यथायोग्यां 'हिइवडियं' स्थितिपतिता, वर्ण के सरल मुगंधित पुष्पों की मालाएँ बान्धी जावे । (गणियावरणाडइज्जकलिय) १० दिवस तक वेश्याजनों का सुन्दर२ नृत्यकला होती रहे। (अणेगतालायराणुचरियं) तथाउस नृत्य कला देखने में ऐसे व्यक्तियों का विशेष रूप से समावेश रहे जो ताल देने में पटू हों। अथवा-वह नृत्य कला की व्यवस्था वाली प्रक्रिया ऐसी हो कि जिसमें स्वर, ग्राम एवं मूर्च्छनादि को सद्भाव क्रियारूप-खूब हो। (पमुइयपक्कीलियाभिराम) जो मनुष्य इस १०दस दिवसीयउत्सव में सम्मिलित होकर विविध प्रकार की क्रीडाओं से जनता का मनोरंजन करे उन पर यह ध्यान रक्खा जावे कि वे किसी भी तरह से हताश न हों किन्तु सदाप्रमुदित ही रहें। करित्ता एयमाणात्तियं पञ्चप्पिणह) इस प्रकार पुत्रोत्पत्ति के उत्सद में क्रियमाण १०दिवस पर्यन्त की इस व्यवस्था को सफलता का रूप देने के लिये जो पूर्वोक्तरूप से आज्ञा दी गई है उसे मनोहर घनाने में किसी भी बात की (गणियावरणाडइजकलियं) इस हिस सुधा वेश्या-यानां सुंदर नृत्योथता रहे. (अणेग तालायराणु चरिय) तेम १ नृत्यामाने नेनारामामा मा व्यति વધારે પડતા હોય કે જેઓ નૃત્ય વખતે તાલ આપવામાં ચતુર હોય અથવા તો નૃત્યકળાની વ્યવસ્થા એવી હોય કે જેમાં સ્વર, ગ્રામ અને મૂચ્છના વગેરેને ક્રિયા ३३ सरस सुभे राय (पमुदय पककीलियाभिराम) ? स स हिवस सुधी ઉત્સવમાં સમ્મિલિત થઈને અનેક કીડાઓ દ્વારા પ્રજાજનેનું મનોરંજન કરે તેઓ ઉપર ખાસ મનરંજન કરે તેઓ ઉપર ખાસ આ રીતે તકેદારી રાખવામાં આવે કે तेसा 1 43 रीते हतोत्साही न 45 तय तेसो प्रसन्न ४ २७. (कारिता एयमाणात्तियं पच्चप्पिणह) २ प्रभारी पुत्रगन्मात्सवमा इस हिस सुधाना मा વ્યવસ્થાને સફળ બનાવવા માટે જે પહેલાં આશા અપાઈ છે તેને સરસ રૂપ આપવામાં કઈ પણ જાતની કસર ન રહેવી જોઈએ. જ્યારે આ બધી વ્યવસ્થા પૂરી થાય
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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